Thursday, June 26, 2014

Duties of a householder for achieving excellent happiness

Duties of a Householder AV 6.122, AV6.123
ऋषि:  -भृगु = जो साधना के  मार्ग पर चलते हुए अपने जीवन को  अधिकाधिक पवित्र बना लेता है तब वह सब धनों का विजेता शक्तिशाली बन कर परम आत्मत्व से सब से सखित्व भाव रखता है.
देवता:- विश्वेदेवा:   
गृहस्थ के दायित्व - दान और पञ्चमहायज्ञ परिवार विषय  
अथर्व 6.122,
पञ्च महायज्ञ विषय
यज्ञ का रहस्य: (आचार्य डा. विशुद्धानंद मिश्र की व्याख्या से साभार उद्धरित)   
 वेद धर्मका प्राण हैं और यज्ञ इस की आत्मा है । यज्ञ सर्वधर्म रूप भवन की आधारशिला है । यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि  धर्माणि प्रथमान्यासन्‌ – ध्यान यज्ञ से देवताओं ने यज्ञ पुरुष की पूजा की, यज्ञ ही प्रथम धर्म  है ।  प्रजापतिर्वै यज्ञ: ,विष्णु र्वै यज्ञ: –यज्ञ ही  प्रजापति है और यज्ञ ही विष्णु है।वेवेष्टिसर्वं जगत स विष्णु:  - जो अपने अनन्त विस्तार से समस्त जगत को व्याप्त कर रहा है वह विष्णु है । तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन्‌ पुरुषं जातमग्रत: – तपस्वी ऋषि मुनियों ने सर्वप्रथम उत्पन्न यज्ञ  पुरुष को अपने हृदय में प्रबुद्ध किया ।
इसीलिए यज्ञ ईश्वर और धर्म का प्रतीक है। समस्त का धारणकर्ता होने के कारणही यज्ञजो प्रजाओं का भरण पोषण व  धारण कराता है यज्ञ धर्म कहलाता है ।
     यज्ञों में मन्त्रों  का विनियोग वेदार्थाधीन  होना चाहिए  
1.   एतं भागं परि ददामि विद्वान्विश्वकर्मन्प्रथमजा ऋतस्य  ।
अस्माभिर्दत्तं जरसः परस्तादछिन्नं तन्तुं अनु सं तरेम  । ।AV6.122.1
Wise man perceives that the bounties provided by Nature from the very beginning are only not be considered as merely rewards earned for his labor but considers himself as a trustee for all the blessings from Almighty to be dedicated for welfare of family and society. Dedication of His bounties ensures that life flows smoothly as normal even when the individuals are past their prime active life to participate in livelihood chores. (This system enables the human society to ensure sustainable happiness. People must dedicate their bounties in welfare and charity of family and society- by performing various Yajnas to protect environments, biodiversity and bring up good well trained progeny.)
संसार का विश्वकर्मा के रूप में परमेश्वर सृष्टि के आरम्भ से ही मानव को अनेक उपलब्धियां प्रदान करता है. बुद्धिमान जन का इस दैवीय कृपा को समाज और परिवार के प्रति समर्पण भाव से देखता है और पञ्च महायज्ञों द्वारा अपना दायित्व निभाता है.    इसी शैलि से सुंस्कृत सुखी समाज का निर्माण होता है. जिस में समाज सुखी और सम्पन्न बनता है. वृद्धावस्था को प्राप्त हुए जन भी आत्म सम्मान से जीवन बिता पाते हैं,पर्यावरण शुद्ध और सुरक्षित होता है.  ( यजुर्वेद का उपदेश “ईशा वास्यमिदँ  सर्वं यत्किञ्च जगत्या जगत्‌” भी यही बताता है कि जो भी जगत में हमारी उपलब्धियां हैं वे सब परमेश्वर की ही हैं. हम केवल प्रतिशासक Trustee हैं,  इस सब का मालिक तो परमेश्वर ही है. और हमारा दायित्व परमेश्वर की  इस देन को संसार, समाज,परिवार  के प्रति अपना दायित्व निभाकर सब की उन्नति को समर्पण करना ही है.)    
 भूत यज्ञ
2.   ततं तन्तुं अन्वेके तरन्ति येषां दत्तं पित्र्यं आयनेन  ।
अबन्ध्वेके ददतः प्रयछन्तो दातुं चेच्छिक्षान्त्स स्वर्ग एव  । ।AV6.122.2
Those who live by the ideals of their virtuous parents and utilize their bounties to dedicate themselves to the cause of providing for the society and environments as also take care and provide good education to their orphaned brothers,  make their own destiny to be part of a happy society and have a happy family life.
जो जन इस संसार में उन को मिली उपलब्धियों को एक यज्ञ का परिणाम मात्र समझते हैं वे (स्वयं इन यज्ञों को करते  हैं ) और सब ऋणों से मुक्त हो जाते हैं .
जो अनाथों के लिए सेवा करते हुए उन्हे समर्थ बनाने के अच्छे प्रयास करते हैं उन का जीवन स्वर्गमय हो जाता है.
अतिथियज्ञ , बलिवैश्वदेव यज्ञ व देवयज्ञ
3.   अन्वारभेथां अनुसंरभेथां एतं लोकं श्रद्दधानाः सचन्ते  ।
यद्वां पक्वं परिविष्टं अग्नौ तस्य गुप्तये दम्पती सं श्रयेथां  । ।AV6.122.3
This is an enjoined duty of the house holders to share with dedication and respectfully their food with guests, in to fire for latently sharing with environments and to the innumerable diverse living creatures. 
दम्पतियों का  (गृहस्थाश्रम में) यह कर्तव्य है कि भोजन बनाते हैं उस को श्रद्धा के साथ अग्नि को गुप्त रूप से पर्यावरण की सुरक्षा, अतिथि सेवा, और और पर्यावरण मे जैव विविधता के संरक्षण मे लगाएं
यज्ञमय जीवन
4.   यज्ञं यन्तं मनसा बृहन्तं अन्वारोहामि तपसा सयोनिः  ।
उपहूता अग्ने जरसः परस्तात्तृतीये नाके सधमादं मदेम  । ।AV6.122.4
By setting an example of following a life devoted earn an honest living and fulfilling one’s duties in performing his duties towards environments, society and family development of an appropriate temperament   takes place. That ensures a peaceful heaven like happy atmosphere in family and off springs that ensures a comfortable life for the old elderly retired persons.
तप ( सदैव कर्मठ बने रहने के स्वभाव से ) और यज्ञ पञ्च महायज्ञ के पालन  करने से उत्पन्न  मानसिकता के विकास द्वारा  जीवन का उच्च श्रेणी का बन जाता  है. ऐसी व्यवस्था में, दु:ख रहित पुत्र पौत्र परिवार और समाज के स्वर्ग तुल्य जिव्वन में मानव की तृतीय जीवन अवस्था (वानप्रस्थ और उपरान्त) हर्ष  से स्वीकृत होती है.
परिवार के प्रति दायित्व (उत्तम सन्तति व्यवस्था)
5.   शुद्धाः पूता योषितो यज्ञिया इमा ब्रह्मणां हस्तेषु प्रपृथक्सादयामि  ।
यत्काम इदं अभिषिञ्चामि वोऽहं इन्द्रो मरुत्वान्त्स ददातु तन्मे  । ।AV6.122.5
Bring up your children to develop virtuous, pure, honest temperaments. Find suitable virtuous husbands for your daughters to marry, in order that they in their turn bring up good virtuous progeny for sustaining a good society.
पुत्रियों का  शुद्ध पवित्र पालन कर के  उत्तम ब्राह्मण गुण युक्त वर खोज कर उन से पाणिग्रहण संस्कार करावें. (जिस से समाज का) इंद्र गुण वाली और ( मरुत्वान्‌ -स्वस्थ जीवन शैलि वाली विद्वान) संतान की वृद्धि  हो. (इस मंत्र में वेद भारतीय परम्परा में संतान को ब्रह्मचर्य  पालन और उच्च शिक्षा के साथ स्वच्छ पौष्टिक आहार के  संस्कार दे कर ,अपने समय पर विवाहोपरांत  स्वयं गृहस्थ आश्रम में प के स्वस्थ विद्वान संतति से समाज  कि व्यवस्था का निभाने का दायित्व  बताया है.)   




AV6.123
1.   एतं सधस्थाः परि वो ददामि यं शेवधिं आवहाज्जातवेदः  ।
अन्वागन्ता यजमानः स्वस्ति तं स्म जानीत परमे व्योमन् । ।AV6.123.1
Creation of wealth is made possible by excellent knowledge and contribution of efforts by the society. It is imperative that the individuals in control of the wealth are duty bound to ensure that all wealth and knowledge are  used in the welfare of the entire creation and that creates heaven on earth..
समस्त धन ऐश्वर्य वेदोक्त ज्ञान और सब के सहयोग का फल है ।  धन और ज्ञान के  कोष  का  समस्त संसार के कल्याण में उपयोग  करने से ही भूमि पर स्वर्ग स्थापित होता है ।
2.   जानीत स्मैनं परमे व्योमन्देवाः सधस्था विद लोकं अत्र  ।
अन्वागन्ता यजमानः स्वस्तीष्टापूर्तं स्म कृणुताविरस्मै  । ।AV6.123.2
(जानीत स्मैनं परमे व्योमन्देवाः सधस्था विद लोकं अत्र) यहां यह निश्चित रूप से जानो कि जब इस संसार में विद्वान लोग एक दूसरे के सहायक बन कर कल्याणकारी कार्यों से स्वर्ग स्थापित करते हैं, जब  (यजमान: स्वस्ति अनु  आगन्ता ) – यज्ञशील पुरुष अधिक से भी अधिक कल्याण कारी सुख प्राप्त करते हैं , जब वे (अस्मै इष्टापूर्तम्‌ आवि: कृणोतु)  – इस कल्याण प्रप्ति के लिए लोक हित कार्यों को पूर्ण करने  में अपना अपना निजी कर्तव्य निभाते  हैं । 
This is a fact that when all people engage collectively in carrying out their individual duties and tasks in the interest of community that fulfill the needs felt by the community welfare of all creates heaven on earth.
3.   देवाः पितरः पितरो देवाः  ।यो अस्मि सो अस्मि  । । AV6.123.3
देवता स्वरूप मनुष्य दूसरों के संरक्षण भरण पोषण में अपना दायित्व कर्तव्य निभाते  हैं जैसे पितर माता पिता संतान के प्रति , इसी प्रकार जो समाज के संरक्षण, भरण पोषण में सेवा कार्य करते  हैं वे देवता स्वरूप  ही होते हैं।
The enlightened persons engage themselves in positive actions that provide for and protect others, just as parents do for their children. Also those who provide for and help others by protecting them are enlightened people.

4.    स पचामि स ददामि  ।स यजे स दत्तान्मा यूषं  । ।AV6.123.4
Dedicate and give away all that you produce and work for. Never forsake the principle of dedicating to giving away all that you produce.
(This Ved mantra contains a very important message for any society. Every one engaging himself in any task such as being self employed or otherwise in an office or industry must realize and appreciate that his entire work is a service towards the large community, society and nation. That he is engaged in his work not for earning his personal livelihood but for making his contribution towards welfare of all. And in return he is getting his share for his services thus rendered. (This is where the Vedic ideal of enshrined in Ashtang Yog of Yam and Niyam comes in to play for a stable strife /conflict free society. The non ostentatious simple  life style promoted for all should be such as everyone is able to live , irrespective of the work being performed by him. There should be little gap in the visible life style of rich and poor.
Gandhi ji called it as a self chosen lifestyle of simple living as a poor.
Inefficiency, trade union conflicts between employees and employers would vanish In modern industries and offices if employees are made to realize that they are to perform their duties as service and in larger cause of society . And the bosses, the employers in charge of the wealth and power are made to realize that they   trustees of the wealth and should make it available for welfare of all.
In the past under this Vedic directive kings and wealthy persons used to dedicate and donate all their extra wealth at the feet of divinities in the temples. Temples were expected to promote actions to build the society by promoting character building by education, study of Vedas, enabling skills and norms of good cows, agriculture, social community services etc. When over a period of time our temples no longer carried out these functions properly by utilizing the donations received by them, vast landed properties, wealth and gold started accumulating in the temples. This attracted hordes of foreign marauding invaders to mount regular periodic attacks on our temples to repeatedly raid India to plunder and loot our temples, destroy any resistance offered take slaves of our men and abduct our women. In fact the intervals between attacks on India by Mahmud Gazanavi and Mohammed Ghori gave them a very good estimate of the annual income generated in India by the areas commanded by different temples. The amount of annual tributes fixed for various Muslim governors that were appointed by them after wards was  based on the estimates of the income generation in the respective provinces.
Thus inaction by non performance by our temples of their duties in using temple wealth for service of the society was the main cause for downfall of our great nation.
And the greatest reformer of India in modern age, Swami Dayanand Saraswati had to point out that Idolatry that had led to establishment of these temples as institutions to become huge sources of power and wealth were  the main cause of decline of our society.)
5.   नाके राजन्प्रति तिष्ठ तत्रैतत्प्रति तिष्ठतु  ।
विद्धि पूर्तस्य नो राजन्त्स देव सुमना भव  । ।AV6.123.5
इस प्रकार प्रशस्त मन वाला , दीप्त जीवन वाला साधक राजा इत्यादि जन वेदों के उपदेश आधारित यज्ञादि उत्तम कर्मों के द्वारा सुखमय लोक (स्वर्ग)  में प्रतिष्ठित होते  हैं . 

Thus enlightened persons and kings , perform various yajnas  according to Vedic wisdom and establish heaven on earth by providing happy life for everybody. 

Saturday, June 14, 2014

Technology Skill Personality development Education

Rig Veda on importance of education, technology  skill & personalty development of Youth for gross happiness of society .;


RV1.3 Gross Happiness Entrepreneurship
ऋषि:-  मधुच्छन्दा वैश्वामित्र:, देवता:- 1-3 अश्विनौ, 4-3 इन्द्र:ू; 7-9 विश्वेदेवा:; 10-12 सरस्वती छंद-  गायत्री ।

शिल्प ज्ञान उन्नति का आधार
Life sustainability by technology
अश्विना यज्वरीरिषो द्रवत्पाणी शुभस्पती ।
     पुरुभुजा चनस्यतम् ।। RV 1.3.1 (Dayanand Bhashyaadharit)

On universal scale - (द्रवत्पाणी) seek fast material growth of (पुरुभुजा) food and means that provide health (शुभस्पती) for welfare of all by (अश्विना) employing the twins of Solar energy resources and Water resources (यज्वरी:)with application technological skills (इषा:) providing objects of desire such as food & facilities (चनस्यपतम्‌) for getting selected and liked by all.
समष्टि रूप में- (द्रवत्पाणी) शीघ्रता से समृद्धि  पाने के लिए (पुरुभुजा) सब के बल और स्वास्थ्य के लिए (इषा:) अन्नादि ऐच्छिक पदार्थों  (चनस्यपतम्‌) की  सात्विक प्राप्ति के लिए (अश्विना) प्राकृतिक  उपलब्द्ध अग्नि सौर ऊर्जा और जल तत्व के प्रयोग से  (यज्वरी:) भौतिक यज्ञादि कुशल कर्मों में प्रवृत्त होवें .
व्यष्टि रूप में - On another level प्राणापान को अश्विना शब्द से स्मरण किया जाता है. कि ये ‘ न श्व:’ यह निश्चित नहीं कि ये कल  भी रहेंगे ,और यह सदैव क्रिया करते रहते हैं .  इन्हीं के कारण यह मानव शरीर चल रहा है, भूख लग रही है और सब इच्छाएं प्रकट हो रही हैं . (यज्वरी:) यज्ञशील बनने के लिए (इषा:) अन्नदि इच्छित पदार्थ  (चनस्यपतम्‌) सात्विकता का जीवन में चयन आवश्यक है. प्राणायाम द्वारा तामसिक वृत्तियों आलस्य काम क्रोध इत्यादि के परित्याग से सात्विक वृत्तियों अहिंसा कर्मठता आत्मविश्वास यज्ञशील जीवन से ही प्रगति और सुख समृद्धि प्राप्त होती है.

प्रोद्योगकि शिक्षा
Technical Education

1. अश्विना पुरुदंससा नरा शवीरया धिया । धिष्ण्या वनतं गिर: ।। RV 1.3.2
(अश्विना)To employ energy and material resources   (पुरुदंससा) for technologies that provides many solutions (नरा शवीरया) for speedy  implementation  (धिया) bring to knowledge । (धिष्ण्या) by fast communication methods (वनतं) to users ( गिर: ) by lecturing education.
(सौर) ऊर्जा और पदार्थ (जलादि) संसाधनों के वैज्ञानिक प्रयोग से शीघ्र  उत्तम उपब्धियों के लिए उत्तमगुरु जन उपदेश द्वारा शिक्षा प्राप्त कराएं
विषमता नाशक ज्ञान
Knowledge to remove hardship

3.दस्रा युवाकव: सुता नासत्या वृक्तबर्हिष: । आ यातं रुद्रवर्तनी ।। RV1.3.3
(दस्रा: ) that which  removes hardship  (युवाकव: ) multidiscipline ( सुता) born out of ( नासत्या ) that which is flawless (वृक्तबर्हिष: ) expert consultants- can also be pathogen destroying herbal covers   । (आ यातं) bring in common use (रुद्रवर्तनी) That does not allow any harm to come.
कठिनाइयों विषमता का नाश ही औद्योगिक शिल्प  ज्ञान की उपब्धि है.

शिल्प ज्ञान  की उपलब्धियां
Gifts of Entrepreneurship

4.इन्द्रा याहि चित्रभानो सुता इमे त्वायव: । अण्वीभिस्तना पूतास: ।। RV1.3.4

(इन्द्रा याहि)The entrepreneurs by (अण्वीभिस्तना पूतास :) utilizing their knowledge and paying attention to the minutest inputs (सुता) create
(इमे त्वायव :)by their efforts (चित्रभानो) amazingly useful results.
सूक्ष्म से सूक्ष्म विषय पर ध्यान दे कर अपने ज्ञान के सदुपयोग से शिल्प द्वारा आश्चर्यजनक  उपलब्धियां सम्भव होती हैं.
चमत्कारी आविष्कार
Creation of innovative products

5. इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजूत: सुतावत: । उप ब्रह्माणि वाघत: ।। RV1.3.5
(इन्द्रा याहि) The entrepreneurs (धियेषितो विप्रजूत: उप ब्रह्माणि) by intelligent knowledge application (सुतावत: वाघत) create very useful products.
सफल शिल्पी अत्यंत सफल आविष्कारक  होते हैं
नवीन आविष्कार
New Technological products

6. इन्द्रा याहि तूतुजान उपब्रह्माणि हरिव: । सुते दधिष्व नश्चन: ।। RV1.3.6
(इन्द्रा याहि) The entrepreneurs (सुते दधिष्व नश्चन:) create useful food etc. every day use products ( तूतुजान उपब्रह्माणि हरिव: ) by excellent knowledge base highly productive methods.
प्रोद्योगिकि शिक्षा का लक्ष्य
Objects of Technical  Education
7. ओमासश्चर्षणीधृतो विश्वे देवास आ गत । दाश्वांसो दाशुष: सुतम् ।। RV1.3.7
Our education should inculcate in our progeny the fearless temperament respecting laws of Nature to provide full protection on physical and mental level to us by good health and virtuous thoughts  for the sustainability of individual and society.
हमारी संतान की बुद्धि  में सत्य शिक्षा के उपदेशों द्वारा वे सब देवताओं के गुण स्थापित होने चाहिएं  जिस से शरीर और मन की मलिनता  दूर हो कर निर्भय, विद्वत और दानवान आचरण स्थापित हो.

शिक्षकों का दायित्व Role of Teachers

8.विश्वे देवासो अप्तुर: सुतमा गन्त तूर्णय: । उस्रा इव स्वसराणि ।। RV1.3.8
(सुतम्‌) To provide enlightenment (विश्वे देवास:) all the world’s teachers (आगंत) should visit daily (अप्तुर: तूर्णय:) for speedy teaching  (उस्रा इव) like sun’s rays (स्वसराणि) that  bring day light.
जिस प्रकार सूर्य प्रकाश से अंधकार को दूर करता है , उसी प्रकार सब गुरुजनों को शीघ्र ज्ञान के प्रकाश का दान को देने के लिए  आना चाहिए

शिक्षा का  परिणाम Results of Education

9.विश्वे देवासो अस्रिध एहिमायासो अद्रुह: । मेधं जुषन्त वह्नय: ।। RV1.3.9
(अस्रिध:) Confident of their knowledge (एहिमायास:) knowledge based action oriented community (विश्वे देवास:) all knowledgeable persons (मेधम्‌) by implementing your knowledge based skills  (अद्रुह:) without causing destruction (to environment and society) (वह्नय:) bring welfare to all.
अपनी कर्म प्रधान शिल्प शिक्षा में दृढ़ आत्मविश्वास द्वारा सब ज्ञानवान वीर जनों बिना पर्यावरण और समाज  को क्षति पहुंचाए ,अपने शिल्प के ज्ञान से  संसार में सुख साधन उत्पन्न करो.
 उत्तम ज्ञानाधारित वाणि का महत्व
Good articulate communication

10.पावका न: सरस्वती वाजेभिर्वाजिनिवती । यज्ञं वष्टु धियावसु: ।।RV 1.3.10
(सरस्वती)Knowledge enabled articulation is (Here importance of keeping one’s knowledge up to date should also be seen.)   (न:) for us ( पावका वाजेभिर्वाजिनिवती) provider of unsullied meritorious virtuous means of habitat  and strength. (धियावसु: )Provide the society thus with excellent (ecologically sustainable) habitat (यज्ञं वष्टु) by implementation of smart projects.
उत्तम ज्ञान आधारित वाणि, पवित्र योजनाओं को कार्यान्वित करने की क्षमता प्रदान करती है. ( यहां अपने ज्ञान को इस स्वाध्याय द्वारा उन्नत करने का भी महत्व देखा जाता है )  इस प्रकार समाज के कल्याण के  सुख साधन पर्यावरण को दूषित किए बिना उपलब्ध करो.

मिथ्याचरण का त्याग Take Ethical Stand

11.चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम् | यज्ञं दधे सरस्वती ।। RV1.3.11
(चोदयित्री चेतन्ती सरस्वती) Have the ability to perceive, stand up and speak the truth (सूनृतानां सुमतीनाम्) by rejecting wrong ideas and following wise path (यज्ञं दधे) in implementation of the projects.
मिथ्याचरण का त्याग और सुमति को व्यक्त करने की अपनी  वाणि मे क्षमता द्वारा पथ भ्रष्ट योजनाओं के स्थान पर कल्याण कारी  योजनाएं कार्यान्वित करो .




उत्तम वाणि शासन का मूलमंत्र
Secret of success- Excellent Articulation
12.महो अर्ण: सरस्वती प्र चेतयति केतुना । यो विश्वा वि राजति ।। RV1.3.12

(महो अर्ण: सरस्वती प्र चेतयति केतुना ) One who has at his command the ocean of knowledge reflected in his speech, ( यो विश्वा वि राजति) he rules the world.
जिस की (सरस्वती) वाणि (केतुना) शुभ कर्म , श्रेष्ठ बुद्धि से (मह:) अगाध (अर्ण:)  शब्दरूपी समुद्र को (प्रचेतसी) जानने वाली है, ( यो विश्वा वि राजति) वही शासनाध्यक्ष होता है.  

Thursday, June 12, 2014

Saubhagy Sookt Rig Ved 7.41

RV7.41 सौभाग्य सूक्तम्‌
ऋषि: मैत्रावरुणिर्वसिष्ट = तांड्य ब्राह्मण के अनुसार मित्रावरुण प्राण और अपान हैं। इन को पूर्ण रूप से सबल करने वाला ऋषि मैत्रावरुणि है. यह वश में करने वालों  में श्रेष्ठ होने से वसिष्ट है। अथवा उत्तम निवास शील होने से वसिष्ट  है । यह जब तक इस शरीर में निवास करता है, उत्तम प्रकार से निवास करता है । राजा बन कर निवास करता है न कि दास बन कर. शक्तिशाली बन कर रहता है नकि  असहायनिर्बल बन कर ।
ऐ 2.26 के अनुसार “वक्षुश्च मनश्च मित्रावरुणा” चक्षु  और मन मित्रावरूण हैं,इन्द्रियों और मन  दोनों को वश में रखनेवाला वसिष्ठ है ।  
ऋ 7.11.3 में प्रभु से प्रार्थना करता है “त्वा युजा पृतनायू रभिष्याम्‌” प्रभु को साथ ले कर कामादि शत्रुओं और प्रलोभनों की सेना पर मैं विजय पाऊं,और “मा नो अग्रे अवीरते परादा दुर्वाससे” ऋ 7.11.19, हम वीर हों  और हमारा वास अच्छा  हो.

1.  प्रातरग्निं प्रातरिन्द्रं हवामहे प्रातर्मित्रावरुणा प्रातरश्विना ।
 प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं प्रातः सोममुत रुद्रं हुवेम ।। ऋ 7-41-1
 “प्रातरग्निं प्रातरिन्द्रं हवामहे प्रातर्मित्रावरुणा प्रातरश्विना ।“ सब से प्रथम सौभाग्यशाली जीवन के लिए मनुष्य को युगम देवता  इंद्र- इच्छा और अग्नि-  शक्ति का आह्वान करते हैं कि युग्म  देवता मित्र -  ओक्सीजन और वरुण –सब रूप में उपलब्ध जल तत्व हमारे युग्म पान और अपान वयु को संचालित करें. और पुनश्च “प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं प्रातः सोममुत रुद्रं हुवेम” और हमारे सौभग्य के लिए हमें ब्रह्मांड की सब वस्तुओं के पोषक तत्वों के संरक्षण के लिए रुद्र देवता के द्वारा दूषित भाग को नष्ट करने  की सोम देवता द्वारा ज्ञान और प्रवृत्ति मिले.

 प्रातरग्निं प्रातरिन्द्रं हवामहे प्रातर्मित्रावरुणा प्रातरश्विना
To live first thing that is required is will to live. That calls for invoking agni and Indra for energy and motivation for the life preserving twin of breathing in and breathing out. Sanskrit being a scientific language calls inhalation and exhalation as praaN and apan –. Pran or also pan inhaled breath is one that is fit for drinking - taking in, and apan  the exhalation is no longer fit for the body . Then again the human breath is made of the twin Mitra and Varuna, Mitra the friendly one is also called Oxygen  and Varun is also known to be universally available water in all its forms such as vapor, moisture, humidity and liquid water . प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं प्रातः सोममुत रुद्रं हुवेम ।। And then one  needs good healthy air to breath and nutrition for successful life. For this  we invoke  Soma i.e. the intelligence to  rectify by Rudra  –the killer of disease and undesirable portions from what we live on ,The air that we breath,  our food, the environmental pollution , the waters and so on.
2.  प्रातर्जितं भगमुग्रं हुवेम वयं पुत्रमदितेर्यो विधर्ता
आध्रश्चिद्यं मन्यमानस्तुरश्चिद्राजा चिद्यं भगं भक्षीत्याहं ।। 7-41-2

“प्रातर्जितं भगमुग्रं हुवेम वयं पुत्रमदितेर्यो विधर्ता”  हम अपने सौभाग्य के लिए प्रात:कालीन समय से ही  सूर्य देवता के उग्र प्रभाव से उत्पन्न विविध प्रभाव का आह्वान करते हैं.(जैसे विटामिन डी, नाना प्रकार  के  रोगाणुओं को नष्ट करने की क्षमता , स्वच्छ जल प्रदान करने के लिए भूमि पर से प्रदूषित जल को स्वच्छ करने  की क्रिया में वाष्प बना कर पुन: मेघों द्वारा पृथ्वी पर स्वच्छ जल का उपहार  देना, वनस्पति , अन्न,  ओषधियों का उत्पाद इत्यादि ) और ये सब “आध्रश्चिद्यं मन्यमानस्तुरश्चिद्राजा चिद्यं भगं भक्षीत्याहं “ समान रूप से  निर्धन और राजा सब को मनन चिंतन से प्रेरित जीवन में ठीक आचरण द्वारा समान रूप से भोग करने के लिए उपलब्ध रहते हैं.

 “प्रातर्जितं भगमुग्रं हुवेम वयं पुत्रमदितेर्यो विधर्ता” We celebrate the immense bounties that are borne of the sun ( such as Vitamin D, Photosynthesis for herbs, plants and crops to grow, sanitation of pathogens, Vaporizing of water  of water for providing rains of life giving water etc.) “आध्रश्चिद्यं मन्यमानस्तुरश्चिद्राजा चिद्यं भगं भक्षीत्याहंand these bounties are freely equally available to all the poorest as well as kings to enjoy by their thoughtful proper conduct in life.

3.  भग प्रणेतर्भग सत्यराधो भगेमां धियमुदवाददन्नः
भग प्र णो जनय गोभिरश्वैर्भग प्र नृभिर्वृवन्तः स्याम ।। 4-47-3

“भग प्रणेतर्भग सत्यराधो भगेमां धियमुदवाददन्नःहम उत्तम सौभाग्य के लिए सद्बुद्धि से  सत्य ज्ञान द्वारा धन इत्यादि को प्रभु  द्वारा  दान समझ कर  भोग  के लिए प्राप्त करें. भग प्र णो जनय गोभिरश्वैर्भग प्र नृभिर्वृवन्तः स्याम” और उत्तम गौओं अश्वों  इत्यादि ,उत्तम पुरुषों  के सत्संग और मित्रता से परम  ऐश्वर्य प्राप्त करें.

“भग प्रणेतर्भग सत्यराधो भगेमां धियमुदवाददन्नःWe pray that we are blessed with the wisdom to earn all the wealth and bounties in  life by fair ethical means and that we consider ourselves as mere trustees and not owners of these bounties भग प्र णो जनय गोभिरश्वैर्भग प्र नृभिर्वृवन्तः स्यामand that we are blessed to enjoy the company of good virtuous friends cows horses etc for excellence in life.

          4. उतेदानी भगवन्तः स्यामोत प्रपित्व उत मध्ये अह्नाम्
उतोदिता मघवन्त्सूर्यस्य वयं देवानां सुमतौ स्याम ।।  4-47-4

उतेदानी भगवन्तः स्यामोत प्रपित्व उत मध्ये अह्नाम्सूर्य के उदय काल से ले कर मध्यान्ह और सूर्य के अस्त काल तक हम सब प्रकार के के ऐश्वर्य प्राप्त करें। .
और उतोदिता मघवन्त्सूर्यस्य वयं देवानां सुमतौ स्याम  इस सारे  समय में हमारी  बुद्धि में सुमति का वास रहे,जिस से  हम सब प्रकार के दैवीय ऐश्वर्य का भोग करें.
.         “उतेदानी भगवन्तः स्यामोत प्रपित्व उत मध्ये अह्नाम्” Beginning with sun rise the morning throughout  midday till evening we should  
          enjoy the best bounties of prosperity in life, and  उतोदिता मघवन्त्सूर्यस्य वयं देवानां सुमतौ स्यामduring all this time we should be
         blessed with the wisdom to enjoy the godly gifts of prosperity and excellent life.

5.भग एव भगवाँ अस्तु देवास्तेन वयं भगवन्तः स्याम
तं त्वा भग सर्व इज्जोहवीति सनो भग पुरएता भवेह ।। 4-47-5

भग एव भगवाँ अस्तु देवास्तेन वयं भगवन्तः स्यामप्रभु ही हमें देवताओं के सद्गुणों पर आचरण द्वारा सौभाग्यशाली धन इत्यादि प्राप्त कराते हैं इसी लिए वे भगवान भी कहलाते हैं   तं त्वा भग सर्व इज्जोहवीति सनो भग पुरएता भवेह” इसी लिए तुम सब भगवान का आह्वान करो कि प्रगति के लिए मार्गदर्शन मिले.  
6. समध्वरायोषसो नमन्तः दधिक्रावेव शुचये पदाय !
   अर्वाचीनं वसुविदं भगं मे रथमिवाश्वा वाजिन आ वहन्तु !!RV7.41.6
 प्रात:काल से ही सूर्य देवता को नमन कर के समाजोन्नति एवं सेवा द्वारा अर्वाचीन – Modern-  उपलब्धियों और समृद्धि के साधनों को राष्ट्र  एवं समाज सेवा हेतु प्राप्त कराने के यज्ञों में  कुशल प्रबंधक राजा इत्यादि अपना दायित्व निभाने में लग जाएं.1

7. अश्वावतीर्गोमतीर्न उषासो वीरवतीः सदमुच्छन्तु भद्राः !
  घृतं दुहाना विश्वतः प्रपीता  यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः !! RV 7.41.7
कल्याणकारी उषाएं प्रतिदिन नव ऊर्जा की स्फूर्ति, पौष्टिक  अन्नदि से परिपूर्ण करने वाले सुवीरों,  गौओं के घी दूध से विश्व को हृष्ट पुष्ट  बना कर और  अश्वों  से नित्य हमारा कल्याणमार्ग प्रशस्त करते रहें




Wednesday, June 11, 2014

Positive attitude in life

Mind Control  RV10.58  
ऋषि: -  बन्धु: श्रुतबन्धुविप्रबन्धुर्गौपायना:;  बन्धु बध्नाति इति बंधु: जो बांधता है वह बंधु है . जिस को बांधना सब से कठिन है उस को जो बांधता है वह सच में बंधु है. किस का बांधना सब से कठिन है ? मन का. जो मन को  बांधता है, इधर उधर नहीं भतकने नहीं देता वह बंधु है . श्रुतबंधु वह बंधु जिस ने श्रुतियों- वेदों  वेदों के  ज्ञान से  विप्र बन्धु अपने को विद्वान बंधु बनाया.गोप कहते हैं इंद्रियों को ,इंद्रियों का पालन करनेवाला गोपायन कहलाया. इस प्रकार मन को बांध लेने से इंद्रियों के व्यर्थ इधर उधर्भटकने से रोकने वाला -  बन्धु: श्रुतबन्धुविप्रबन्धुर्गौपायना: ऋषि कहलाया.      

 देवता: -  मनआवर्तनं । छंद: -अनुष्टुप् ।

Refrain ध्रुवपंक्ति .मनो जगाम दूरकम्‌ , त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे !!

Live in the Present  - Be focused in Life for its betterment

जो तुम्हारा मन बहुत दूर चला गया हैतुम्हारे उस मन को लौटा लाते  हैं  क्योंकि तुम इस संसार  में निवास  के लिए  जीते  हो.

A life positive attitude

1.यत ते यमं वैवस्वतं मनो जगाम दूरकम्‌ तत त आवर्तयामसीह क्षयाय जीवसे || R10.58.1
Develop life positive attitude, Do not turn away from life, Be focused in Life for its betterment

तुम्हारा जो मन वैवस्त के पुत्र यम के पास चला गया हैअर्थात वैराग्य की ओर बहुत दूर चला गया हैतुम्हारे उस मन को लौटा लाते  हैं  क्योंकि तुम इस संसार  में निवास  के लिए  जीते  हो.

(विवस्वान है वासना रहित व्यक्तित्व मनुष्य वासनाओं से जितना ऊपर उठता है उतना ही उसका जीवात्मा और अहंबुद्धि  संयमशील होता  हैं . और क्रमशः यम और यमी कहलाने के अधिकरी होते हैं. यम संयम शील जीवात्मा है और  यमी उसकी बहन संयम शील अहंबुद्धि है. बच्चा जब माता के गर्भ से पैदा होता है तो उस  के शरीर में  जीव और अहंबुद्धि  साथ साथ  जन्मते हैं. इसी लिए यम और यमी को  जुडवां कहा जाता है. अतः यम और यमी वस्तुतः वासना रहित व्यक्तित्व की दो संतानें हैं. ये दोनों शकट (हविर्धान) अर्थात सोम ढोने वाली गाडियों के रूप में भी  देखे जाते  हैं . यम देवों के हित में मृत्यु का वरण करता है. पर संतान के अभीष्ट के लिए अमृत को त्याग देता है.)

2. यत ते दिवं यत्पृथ्वीं   मनो जगाम दूरकम तत्‌  त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे || ऋ10.58.2
Do not indulge in day dreaming. Be focused in Life for its betterment.

Day dreaming: जो तेरा मन दिवास्वप्न की ओर बहुत दूर चला गया हैतुम्हारे उस मन को लौटा लाते  हैं  क्योंकि तुम इस संसार  में निवास  के लिए  जीते  हो.




Pessimism - seeing difficulties all-round

3. यत ते भूमिं चतुर्भृष्टिं मनो जगाम दूरकम |
तत्‌  त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे || ऋ10.58.3

Your Mind due to pessimism perceives all-round difficulties in life,  turn it back  to be focused in Life for its betterment.

मन जो अवसाद से  चारों ओर से तपने वाली भूमि  की ओर बहुत दूर चला गया है,तुम्हारे उस मन को लौटा लाते  हैं  क्योंकि तुम इस संसार  में निवास  के लिए  जीते  हो.

Wandering Mind भटकता मन

4. यत ते चतस्रः प्रदिशो मनो जगाम दूरकम तत  तत्    वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे||10.58.4

Your wandering mind that has gone very far in the four directions, bring it back to be focused in life for its betterment.

चारो दिशाओं में तुम्हारा मन  जो भटक कर  बहुत दूर चला गया हैतुम्हारे उस मन को लौटा लाते  हैं  क्योंकि तुम इस संसार  में निवास  के लिए  जीते  हो.

5. यत ते समुद्रमर्णवं मनो जगाम दूरकम |
तत्‌  त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे
 ||ऋ10.58.5

 जल से भरे  समुद्र  में जो  बहुत दूर चला गया हैतुम्हारे उस मन को लौटा लाते है

क्योंकि तुम इस संसार  में निवास  के लिए  जीते  हो.

6. यत ते मरीचीः प्रवतो मनो जगाम दूरकम |
तत्‌  त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे ||
 ऋ10.58.6

 Mirage-मृग तृष्णा की ओर जो बहुत दूर चला गया हैतुम्हारे उस मन को लौटा लाते हैं  क्योंकि तुम इस संसार  में निवास  के लिए  जीते  हो.


7. यत ते अपो यदोषधी  मनो जगाम दूरकम |
तत्‌  त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे
  || ऋ10.58.7

Paranoid about  diseases  भ्रमोन्माद से औषधियों वनस्पतियों में जो तुम्हारा मन  बहुत दूर चला गया हैतुम्हारे उस मन को लौटा लाते  हैं  क्योंकि तुम इस संसार  में निवास  के लिए  जीते  हो.

8. यत ते सूर्यं यदुषसं मनो जगाम दूरकम |
तत्‌  त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे ||
 ऋ10.58.8

सूर्य और उषा के पास जो  बहुत दूर चला गया हैतुम्हारे उस मन को लौटा लाते  है

  क्योंकि तुम इस संसार  में निवास  के लिए  जीते  हो.

9. यत ते पर्वतान बृहतो मनो जगाम दूरकम |
तत्‌  त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे ||ऋ10.58.9

बडे बडे पर्वतों की ओर जो  बहुत दूर चला गया हैतुम्हारे उस मन को लौटा लाते  हैं क्योंकि तुम इस संसार  में निवास  के लिए  जीते  हो.

10. यत ते विश्वमिदं जगन्‌ मनो जगाम दूरकम |
तत्‌  त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे ||ऋ10.58.10

सारे संसार की ओर जो बहुत दूर चला गया हैतुम्हारे उस मन को लौटा लाते  हैं  क्योंकि तुम इस संसार  में निवास  के लिए  जीते  हो.

11. यत ते पराः परावतो मनो जगाम दूरकम |
तत्‌  त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे ||ऋ10.58.11

 दूर से  दूर और उस से भी दूर  और  भी बहुत दूर चला गया हैतुम्हारे उस मन को लौटा लाते  हैं  क्योंकि तुम इस संसार  में निवास  के लिए  जीते  हो.

12. यत ते भूतं च भव्यं च मनो जगाम दूरकम |
तत्‌  त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे ||
 ऋ10.58.12

भूत  काल  और  भविष्य की ओर जो  बहुत दूर चला गया हैतुम्हारे उस मन को

लौटा लाते  हैं  क्योंकि तुम इस संसार  में निवास  के लिए  जीते  हो.