Duties of a Householder AV 6.122, AV6.123
ऋषि: -भृगु = जो साधना के मार्ग पर चलते हुए अपने जीवन को अधिकाधिक पवित्र बना लेता है तब वह सब धनों का
विजेता शक्तिशाली बन कर परम आत्मत्व से सब से सखित्व भाव रखता है.
देवता:- विश्वेदेवा:
गृहस्थ के दायित्व - दान और पञ्चमहायज्ञ परिवार विषय
अथर्व 6.122,
पञ्च महायज्ञ विषय
यज्ञ का रहस्य:
(आचार्य डा. विशुद्धानंद मिश्र की व्याख्या से साभार उद्धरित)
वेद धर्मका प्राण हैं और यज्ञ इस की आत्मा है ।
यज्ञ सर्वधर्म रूप भवन की आधारशिला है । ‘ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि
धर्माणि प्रथमान्यासन्’ – ध्यान यज्ञ से देवताओं ने
यज्ञ पुरुष की पूजा की, यज्ञ ही प्रथम धर्म है । ‘प्रजापतिर्वै यज्ञ: ,विष्णु र्वै यज्ञ:’ –यज्ञ ही प्रजापति है और यज्ञ ही
विष्णु है।‘वेवेष्टिसर्वं जगत स विष्णु:’ - जो अपने अनन्त विस्तार से
समस्त जगत को व्याप्त कर रहा है वह विष्णु है । ‘तं यज्ञं
बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रत:’ – तपस्वी ऋषि मुनियों
ने सर्वप्रथम उत्पन्न यज्ञ पुरुष को अपने
हृदय में प्रबुद्ध किया ।
इसीलिए यज्ञ ईश्वर और धर्म का
प्रतीक है। समस्त का धारणकर्ता होने के कारणही यज्ञजो प्रजाओं का भरण पोषण व धारण कराता है यज्ञ धर्म कहलाता है ।
यज्ञों में मन्त्रों का विनियोग वेदार्थाधीन होना चाहिए
1.
एतं
भागं परि ददामि विद्वान्विश्वकर्मन्प्रथमजा ऋतस्य
।
अस्माभिर्दत्तं जरसः
परस्तादछिन्नं तन्तुं अनु सं तरेम । ।AV6.122.1
Wise man perceives that the bounties provided
by Nature from the very beginning are only not be considered as merely rewards
earned for his labor but considers himself as a trustee for all the blessings from
Almighty to be dedicated for welfare of family and society. Dedication of His
bounties ensures that life flows smoothly as normal even when the individuals
are past their prime active life to participate in livelihood chores. (This system
enables the human society to ensure sustainable happiness. People must dedicate
their bounties in welfare and charity of family and society- by performing
various Yajnas to protect environments, biodiversity and bring up good well
trained progeny.)
संसार का विश्वकर्मा के रूप में
परमेश्वर सृष्टि के आरम्भ से ही मानव को अनेक उपलब्धियां प्रदान करता है.
बुद्धिमान जन का इस दैवीय कृपा को समाज और परिवार के प्रति समर्पण भाव से देखता है
और पञ्च महायज्ञों द्वारा अपना दायित्व निभाता है. इसी शैलि से सुंस्कृत सुखी समाज का निर्माण होता
है. जिस में समाज सुखी और सम्पन्न बनता है. वृद्धावस्था को प्राप्त हुए जन भी आत्म
सम्मान से जीवन बिता पाते हैं,पर्यावरण शुद्ध
और सुरक्षित होता है. ( यजुर्वेद का उपदेश
“ईशा वास्यमिदँ सर्वं यत्किञ्च जगत्या जगत्” भी यही
बताता है कि जो भी जगत में हमारी उपलब्धियां हैं वे सब परमेश्वर की ही हैं. हम
केवल प्रतिशासक Trustee हैं, इस सब का मालिक तो परमेश्वर ही
है. और हमारा दायित्व परमेश्वर की इस देन
को संसार, समाज,परिवार के प्रति अपना दायित्व निभाकर सब की उन्नति को
समर्पण करना ही है.)
भूत यज्ञ
2.
ततं
तन्तुं अन्वेके तरन्ति येषां दत्तं पित्र्यं आयनेन ।
अबन्ध्वेके ददतः प्रयछन्तो
दातुं चेच्छिक्षान्त्स स्वर्ग एव । ।AV6.122.2
Those who live by the ideals of their virtuous
parents and utilize their bounties to dedicate themselves to the cause of providing
for the society and environments as also take care and provide good education
to their orphaned brothers, make their own
destiny to be part of a happy society and have a happy family life.
जो जन इस संसार में उन को मिली उपलब्धियों
को एक यज्ञ का परिणाम मात्र समझते हैं वे (स्वयं इन यज्ञों को करते हैं ) और सब ऋणों से मुक्त हो जाते हैं .
जो अनाथों के लिए सेवा करते हुए
उन्हे समर्थ बनाने के अच्छे प्रयास करते हैं उन का जीवन स्वर्गमय हो जाता है.
अतिथियज्ञ , बलिवैश्वदेव यज्ञ व देवयज्ञ
3.
अन्वारभेथां
अनुसंरभेथां एतं लोकं श्रद्दधानाः सचन्ते
।
यद्वां पक्वं परिविष्टं
अग्नौ तस्य गुप्तये दम्पती सं श्रयेथां ।
।AV6.122.3
This is an enjoined duty of the house holders to
share with dedication and respectfully their food with guests, in to fire for
latently sharing with environments and to the innumerable diverse living
creatures.
दम्पतियों का (गृहस्थाश्रम में) यह कर्तव्य है कि भोजन बनाते
हैं उस को श्रद्धा के साथ अग्नि को गुप्त रूप से पर्यावरण की सुरक्षा, अतिथि सेवा, और और पर्यावरण मे जैव विविधता के संरक्षण
मे लगाएं
यज्ञमय जीवन
4.
यज्ञं
यन्तं मनसा बृहन्तं अन्वारोहामि तपसा सयोनिः
।
उपहूता अग्ने जरसः परस्तात्तृतीये
नाके सधमादं मदेम । ।AV6.122.4
By setting an example of following
a life devoted earn an honest living and fulfilling one’s duties in performing
his duties towards environments, society and family development of an
appropriate temperament takes place. That ensures a peaceful heaven
like happy atmosphere in family and off springs that ensures a comfortable life
for the old elderly retired persons.
तप ( सदैव कर्मठ बने रहने के स्वभाव
से ) और यज्ञ पञ्च महायज्ञ के पालन करने से
उत्पन्न मानसिकता के विकास द्वारा जीवन का उच्च श्रेणी का बन जाता है. ऐसी व्यवस्था में, दु:ख रहित पुत्र पौत्र परिवार और समाज के स्वर्ग तुल्य जिव्वन में मानव
की तृतीय जीवन अवस्था (वानप्रस्थ और उपरान्त) हर्ष से स्वीकृत होती है.
परिवार के प्रति दायित्व (उत्तम
सन्तति व्यवस्था)
5.
शुद्धाः
पूता योषितो यज्ञिया इमा ब्रह्मणां हस्तेषु प्रपृथक्सादयामि ।
यत्काम इदं अभिषिञ्चामि
वोऽहं इन्द्रो मरुत्वान्त्स ददातु तन्मे ।
।AV6.122.5
Bring up your children to develop virtuous,
pure, honest temperaments. Find suitable virtuous husbands for your daughters to
marry, in order that they in their turn bring up good virtuous progeny for
sustaining a good society.
पुत्रियों का शुद्ध पवित्र पालन कर के उत्तम ब्राह्मण गुण युक्त वर खोज कर उन से पाणिग्रहण
संस्कार करावें. (जिस से समाज का) इंद्र गुण वाली और ( मरुत्वान् -स्वस्थ जीवन
शैलि वाली विद्वान) संतान की वृद्धि हो. (इस मंत्र में वेद भारतीय परम्परा में संतान को ब्रह्मचर्य
पालन और उच्च शिक्षा के साथ स्वच्छ
पौष्टिक आहार के संस्कार दे कर ,अपने समय पर विवाहोपरांत स्वयं
गृहस्थ आश्रम में प के स्वस्थ विद्वान संतति से समाज कि व्यवस्था का निभाने का दायित्व बताया है.)
AV6.123
1.
एतं
सधस्थाः परि वो ददामि यं शेवधिं आवहाज्जातवेदः
।
अन्वागन्ता यजमानः
स्वस्ति तं स्म जानीत परमे व्योमन् । ।AV6.123.1
Creation of wealth is made possible by
excellent knowledge and contribution of efforts by the society. It is
imperative that the individuals in control of the wealth are duty bound to ensure
that all wealth and knowledge are used
in the welfare of the entire creation and that creates heaven on earth..
समस्त धन ऐश्वर्य वेदोक्त ज्ञान और
सब के सहयोग का फल है । धन और ज्ञान के कोष
का समस्त संसार के कल्याण में
उपयोग करने से ही भूमि पर स्वर्ग स्थापित
होता है ।
2.
जानीत
स्मैनं परमे व्योमन्देवाः सधस्था विद लोकं अत्र
।
अन्वागन्ता यजमानः
स्वस्तीष्टापूर्तं स्म कृणुताविरस्मै । ।AV6.123.2
(जानीत स्मैनं परमे व्योमन्देवाः
सधस्था विद लोकं अत्र) यहां यह निश्चित रूप से जानो कि जब इस संसार में विद्वान
लोग एक दूसरे के सहायक बन कर कल्याणकारी कार्यों से स्वर्ग स्थापित करते हैं, जब (यजमान: स्वस्ति अनु आगन्ता ) – यज्ञशील पुरुष अधिक से भी अधिक
कल्याण कारी सुख प्राप्त करते हैं , जब वे (अस्मै
इष्टापूर्तम् आवि: कृणोतु) – इस कल्याण
प्रप्ति के लिए लोक हित कार्यों को पूर्ण करने
में अपना अपना निजी कर्तव्य निभाते
हैं ।
This is a fact that when all people engage
collectively in carrying out their individual duties and tasks in the interest
of community that fulfill the needs felt by the community welfare of all
creates heaven on earth.
3.
देवाः
पितरः पितरो देवाः ।यो अस्मि सो
अस्मि । ।
AV6.123.3
देवता स्वरूप
मनुष्य दूसरों के संरक्षण भरण पोषण में अपना दायित्व कर्तव्य निभाते हैं जैसे पितर माता पिता संतान के प्रति , इसी प्रकार जो समाज के संरक्षण, भरण पोषण में सेवा
कार्य करते हैं वे देवता स्वरूप ही होते हैं।
The enlightened persons
engage themselves in positive actions that provide for and protect others, just
as parents do for their children. Also those who provide for and help others by
protecting them are enlightened people.
4.
स पचामि स ददामि ।स यजे स दत्तान्मा यूषं । ।AV6.123.4
Dedicate and give away all
that you produce and work for. Never forsake the principle of dedicating to
giving away all that you produce.
(This Ved
mantra contains a very important message for any society. Every one engaging
himself in any task such as being self employed or otherwise in an office or
industry must realize and appreciate that his entire work is a service towards
the large community, society and nation. That he is engaged in his work not for
earning his personal livelihood but for making his contribution towards welfare
of all. And in return he is getting his share for his services thus rendered. (This
is where the Vedic ideal of enshrined in Ashtang Yog of Yam and Niyam comes in
to play for a stable strife /conflict free society. The non ostentatious
simple life style promoted for all should
be such as everyone is able to live , irrespective of the work being performed
by him. There should be little gap in the visible life style of rich and poor.
Gandhi ji
called it as a self chosen lifestyle of simple living as a poor.
Inefficiency,
trade union conflicts between employees and employers would vanish In modern
industries and offices if employees are made to realize that they are to
perform their duties as service and in larger cause of society . And the
bosses, the employers in charge of the wealth and power are made to realize
that they trustees of the wealth and should make it
available for welfare of all.
In the past under
this Vedic directive kings and wealthy persons used to dedicate and donate all
their extra wealth at the feet of divinities in the temples. Temples were
expected to promote actions to build the society by promoting character
building by education, study of Vedas, enabling skills and norms of good cows,
agriculture, social community services etc. When over a period of time our
temples no longer carried out these functions properly by utilizing the donations
received by them, vast landed properties, wealth and gold started accumulating
in the temples. This attracted hordes of foreign marauding invaders to mount
regular periodic attacks on our temples to repeatedly raid India to plunder and
loot our temples, destroy any resistance offered take slaves of our men and
abduct our women. In fact the intervals between attacks on India by Mahmud
Gazanavi and Mohammed Ghori gave them a very good estimate of the annual income
generated in India by the areas commanded by different temples. The amount of annual
tributes fixed for various Muslim governors that were appointed by them after
wards was based on the estimates of the
income generation in the respective provinces.
Thus inaction
by non performance by our temples of their duties in using temple wealth for
service of the society was the main cause for downfall of our great nation.
And the
greatest reformer of India in modern age, Swami Dayanand Saraswati had to point
out that Idolatry that had led to establishment of these temples as institutions
to become huge sources of power and wealth were the main cause of decline of our society.)
5.
नाके
राजन्प्रति तिष्ठ तत्रैतत्प्रति तिष्ठतु ।
विद्धि पूर्तस्य नो
राजन्त्स देव सुमना भव । ।AV6.123.5
इस प्रकार प्रशस्त मन वाला , दीप्त जीवन वाला साधक राजा इत्यादि जन वेदों के उपदेश आधारित यज्ञादि
उत्तम कर्मों के द्वारा सुखमय लोक (स्वर्ग)
में प्रतिष्ठित होते हैं .
Thus enlightened persons and kings , perform
various yajnas according to Vedic wisdom
and establish heaven on earth by providing happy life for everybody.
Inspiration truth. .very nice and true
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