Wednesday, July 14, 2021

 

 

वैदिक सन्ध्या ब्रह्म यज्ञ

1.ॐ  भू: र्भुव: स्व:, तत् स॑वि॒तुर्वरे॑ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि। धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥यजु3.35॥ऋ3.62.10

पदार्थःहम लोग (सवितुः) सब जगत् के उत्पन्न करने वा (देवस्य) प्रकाशमय शुद्ध वा सुख देने वाले परमेश्वर का जो (वरेण्यम्) अति श्रेष्ठ (भर्गः) पापरूप दुःखों के मूल को नष्ट करने वाला तेजःस्वरूप है (तत्) उसको (धीमहि) धारण करें और (यः) जो अन्तर्यामी सब सुखों का देने वाला है, वह अपनी करुणा करके (नः) हम लोगों की (धियः) बुद्धियों को उत्तम-उत्तम गुण, कर्म, स्वभावों में (प्रचोदयात्) प्रेरणा करे॥३५॥

भावार्थःमनुष्यों को अत्यन्त उचित है कि इस सब जगत् के उत्पन्न करने वा सब से उत्तम सब दोषों के नाश करने तथा अत्यन्त शुद्ध परमेश्वर ही की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करें। किस प्रयोजन के लिये, जिससे वह धारण वा प्रार्थना किया हुआ हम लोगों को खोटे-खोटे गुण और कर्मों से अलग करके अच्छे-अच्छे गुण, कर्म और स्वभावों में प्रवृत्त करे, इसलिये। और प्रार्थना का मुख्य सिद्धान्त यही है कि जैसी प्रार्थना करनी, वैसा ही पुरुषार्थ से कर्म का आचरण करना चाहिये॥३५॥

2. शन्नो देवीरित्यस्य दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः। आपो देवताः। गायत्री छन्दः। षड्जः स्वरः॥

शन्नो॑ दे॒वीर॒भिष्ट॑य॒ऽआपो॑ भवन्तु पी॒तये॑।

शंयोर॒भि स्र॑वन्तु नः॥यजु36.12॥ अथर्व 1.61.1

 

पदार्थःहे जगदीश्वर वा विद्वन्! जैसे (अभिष्टये) इष्ट सुख की सिद्धि के लिये (पीतये) पीने के अर्थ (देवीः) दिव्य उत्तम (आपः) जल (नः) हमको (शम्) सुखकारी (भवन्तु) होवें (नः) हमारे लिये (शंयोः) सुख की वृष्टि (अभि, स्रवन्तु) सब ओर से करें, वैसे उपदेश करो॥१२॥

भावार्थःजो मनुष्य यज्ञादि से शुद्ध जलादि पदार्थों का सेवन करते हैं, उन पर सुखरूप अमृत की वर्षा निरन्तर होती है॥१२॥

3. 1. ॐअमृतोपस्तरणअमसि स्वाहा

2.ॐ अमृतोपस्तरणमसि  स्वाहा

3.ॐ सत्यं यश: श्रीर्मयि श्री: श्रयताम्‌ स्वाहा

आचमन मन्त्रों का महत्त्व

आचमन करने के साथ निम्न व्रतों को ग्रहण करते हुए जीवन को यज्ञमय बनाना चाहिए।

जल को अमृतकहा गया है। अमृत से तात्पर्य- न मृतम् अमृतम्अर्थात् जल जीवनदायक अमृत स्वरूप है। संस्कृत में जल को जीवन कहते हैं। प्रभु कृपा से मानव शरीर मिला है, इसे जीवन युक्त बनाना चाहिए। प्रभु कृपा से हमारा जीवन जीवनमय बने, अमृतमय, आनन्दमय बने। प्रथम आचमन के द्वारा यह व्रत लेना है।

द्वितीय आचमन के समय जल अमृतमय तब होता है जब वह गतिशील होता है। गति ही जीवन है। तदनुसार निरन्तर गतिशील रहकर, कर्म के द्वारा, सत्कर्म के द्वारा जीवन निर्माण का व्रत ग्रहण करना चाहिए। जिस प्रकार गतिशील जल में जीवन तत्व रहते हैं, वैसे ही निरन्तर कर्म के द्वारा जीवन को गतिशील बनाने की प्रेरणा द्वितीय आचमन से ग्रहण करना है।

गतिशील जल निर्मल होता है। अतः तृतीय आचमन के साथ गति सदैव निर्मल, स्वच्छ, पवित्र हो, यह भावना ग्रहण करनी चाहिए। निर्मल अन्तःकरण में ही सत्य, यश एवं श्री शोभा, ऐश्वर्य का निवास होता है।

केवल मन्त्र पाठ से गृहीत आचमन से भौतिक दृष्टि से, बाह्य रूप से भले ही लाभ मिले किन्तु आत्मिक लाभ दृढ़ संकल्प एवं तदनुकूल आचरण से होता है। आचमन मन्त्रों के अर्थानुसार यह भाव भी स्मरण रखने योग्य है।

उपस्तरणका अर्थ बिछौना है। बिछौना आधार है, आश्रय है, माँ की गोद का आश्रय कितना आनन्दमय एवं शान्तिदायक होता है। उसी प्रकार ईश्वर भी सम्पूर्ण जगत् का आधार है, उसके आश्रय में रहकर मैं सदैव निर्भीक एवं आनन्दमय स्थिति में रहूँ।

द्वितीय मन्त्र में अपिधानम्का अर्थ है ओढ़नी। जिस प्रकार माँ की गोद में लेटा हुआ शिशु वस्त्र से आच्छादित होकर निर्भीक होता है। कभी शिशु निद्रा में भयभीत होता है तो माँ का हाथ उस पर आच्छादन का सहारा होता है। इस असार संसार में याजक को वह भाव ग्रहण करना चाहिए कि सर्वव्यापक परमेश्वर का हाथ सदैव याजक के ऊपर है। वह सर्वात्मना उसका रक्षक है, उसके रहते हुए संसार में किसका भय?

पूज्य स्वामी केवलानन्द जी का संस्मरण इस आशय को पुष्ट करने वाला है। पूज्य स्वामी केवलानन्द जी किसी पर्वतीय प्रदेश की शोभा देखने गये थे। विचार यह हुआ कि पर्वत पर प्रातः शीघ्र चढ़ेंगे। रात्रि में एक धर्मशाला में ठहरे। प्रातः शीघ्र उठकर स्नान, ध्यान से निवृत्त होकर धर्मशाला के सामने वाटिका में टहलकर, ओर लोगों के तैयार होने की प्रतीक्षा करने लगे। स्वामी जी की आकृति भव्य, उस पर लम्बी दाढ़ी और भी अधिक भव्य थी। सबके तैयार होने पर सब ऊपर चढ़ने लगे, अभी कुछ दूर चले होंगे कि स्वामी जी ने देखा कि एक भद्र महिला की गोद में बैठा बालक स्वामी जी को घूंसा दिखा रहा था। स्वामी जी ने आश्चर्य से दृष्टि दूसरी ओर की थोड़ी देर बाद पुनः उनकी दृष्टि उस पर पड़ी तो बालक ने फिर वही किया। चार-पांच बार घूंसा दिखाने की बात रही। पर्वत पर चढ़कर थोड़ी देर विश्राम करने पर स्वामी जी ने भद्र महिला से पूछ ही लिया-बेटी, मैं आपको जानता भी नहीं, फिर आपका यह बालक सारे रास्ते मुझे घूंसा क्यों दिखा रहा था? क्षमा याचना के साथ महिला ने उत्तर दिया कि बालक का कोई अपराध नहीं। प्रातः यह बालक नहा नहीं रहा था, तब मैंने उसे बाग में टहलते हुए आपको दिखाकर कहा-नहीं नहायेगा तो बाबाजी झोली में डालकर ले जायेंगे, तो शीघ्र स्नान कर लिया। यह मेरी गोद में था। अतः निर्भीक बनकर आपको घूंसा दिखाकर यह कह रहा था कि मुझे क्या ले जाओगे? मैं आपको मारूँगा।

परमेश्वर के आश्रय में रहकर हमारे अन्दर भी निर्भीकता का भाव आना ही चाहिए।

तृतीय आचमन में सत्य, यश एवं श्री की कामना है। निस्सन्देह सत्याचरण यश प्रदान करता है। यशस्वी व्यक्ति का ऐश्वर्य ही शोभा देनेवाला अर्थात् इहलोक एवं परलोक में सुखशान्ति देने वाला होता है। यजुर्वेद का वचन है-

दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत् सत्यानृते प्रजापितः।

अश्रद्धामनृतेsदधाच्छ्रद्धां सत्येसेप्रजापितः।।

-यजुर्वेद १९//७७

प्रजापति परमेश्वर ने भी सत्य और अनृत-असत्य के रूप को देखकर यह शिक्षा दी कि मनुष्य अनृत में अश्रद्धा और सत्य में श्रद्धा करे। इस प्रकार सत्याचरण का जीवन में विशेष महत्त्व है। असत्याचरण से प्राप्त धन सुख के साधन दे सकता है, पर सुख शान्ति नहीं। असत्याचरण से प्राप्त धन इस जीवन में थोड़ा सुख भले ही दे किन्तु परलोक तो नष्ट हो जाता है। मनु महाराज ने अर्थ की, धन की पवित्रता पर विशेष बल दिया है-

          सर्वेषामेव-से-शुचिः।     

-मनु-स्मृति ५//१०६

सभी पवित्रताओं में धन की पवित्रता सर्वश्रेष्ठ है। जो धनार्जन में पवित्र है, वही पवित्र है। मिट्टी जल की पवित्रता नहीं। अतः जीवन में सत्याचरण का विशेष महत्त्व है।

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स्वाहा शब्द से तात्पर्य

प्रथम आचमन के समय स्वाहा कहते हुए यह संकल्प लेना चाहिए कि जल के समान-सु आह इति वाहम सदैव मधुर कोमल सर्वहितकारी वाणी बोलेंगे।

द्वितीय आचमन के समय स्वाहा उच्चारण के साथ स्वावाग् आह इति वाअपने अन्तरात्मा में परमात्मा का आश्रय उनकी कृपा दृष्टि सदैव मेरे ऊपर है ऐसा विचार करके यथातथ्य अर्थात् ज्ञानानुसार सत्य बात कहने का संकल्प लेना चाहिए।

तृतीय आचमन के साथ स्वाहा का उच्चारण करते हुए श्रद्धा सहित स्वाहुतं हविर्जुहोति इति वाअर्थात् स्वार्जित सत्याचरण से प्राप्त यश, लक्ष्मी (धनैश्वर्य) को सदैव संसार के कल्याणार्थ समर्पित करने का संकल्प लेना चाहिए।

उक्त संकल्प मोक्ष प्राप्ति के पात्रत्व का अधिकारी बनाता हैं।

तीन आचमन क्यों?

जिस प्रकार जल शान्त होता है, शान्ति देता है, जीवन देता है, उसी प्रकार हमें शान्त रहते हुए आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त हो। इन तापत्रय से मुक्ति का संकल्प आचमन से ग्रहण करना है।

इसके अतिरिक्त मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् के अनुसार मन, वाणी एवं कर्म की एकता के द्वारा महान् बनने का संकल्प लेना है।

 

 

1अंग-स्पर्श के मन्त्र एवं विधि की आवश्यकता को निम्न उदाहरण से समझना उत्तम रहेगा-

एक नवयुवक कार्लमार्क्स के पास जाकर बोला-कामरेड, आप साम्यवाद का ढिंढोरा पीटते हैं मैं अत्यन्त निर्धन हूँ। मुझे धन की आवश्यकता है, धन दें। मार्क्स ने युवक को देखा और कहा-बड़े दुःख की बात है तुम्हारे पास धन नहीं है, अभी-अभी एक कम्पनी खुली है, उसे मनुष्य के अंगों का परीक्षण करना है, तुम अपने दोनों हाथ देकर आओ, तुम्हें दो लाख मिलेंगे। नवयुवक ने हाथों को देखकर कहा-यह सम्भव नहीं है। कामरेड ने पुनः कहा-वह कम्पनी दो पैर लेगी, दोनों पैरों के दो करोड़ देगी-जाओ, दो करोड़ ले आओ। नवयुवक ने फिर मना कर दिया। फिर माक्र्स बोले-वही कम्पनी तुम्हारी आंखें ले लेगी। दोनों आंखों के दो अरब रुपये मिल जायेंगे। नवयुवक ने फिर मना किया। मार्क्स गम्भीर होकर तुम तो कह रहे थे मैं अत्यन्त निर्धन हूँ किन्तु अरबों की सम्पत्ति तो तुम्हारे पास है।नवयुवक एक बड़ा महान् बोध लेकर चला गया।

उक्त उदाहरण शरीर के अंग-प्रत्यंगों के महत्त्व को प्रकट करता है। इस अंग प्रत्यंग की पुष्टता के लिए इनकी वृत्ति सदैव सन्मार्ग पर रखने के लिए इन अंग-स्पर्श के मन्त्रों का विधान है। ईश्वर की कृपा प्राप्त हो, हम सत्पात्र बनें, एतदर्थ ही अंग स्पर्श करना आवश्यक है।

अंग स्पर्श मन्त्रों का भाव

१- ओं वाङ्मऽआस्येऽस्तुहे परमेश्वर! मेरे मुख में वाक् शक्ति प्रशस्त हो।

२- ओं नसोर्मे प्राणोऽस्तुहे परमेश्वर! मेरे नासिका-छिद्रों में प्राण शक्ति हो।

३- ओम् अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तुहे परमेश्वर! मेरे नेत्रों में दृष्टि सामर्थ्य बना रहे।

४- ओं कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तुहे परमेश्वर! मेरे कानों में श्रवण शक्ति हो।

५- ओं बाह्वोर्मे बलमस्तुहे परमेश्वर! मेरी भुजाओं में बल हो।

६- ओम् ऊर्वोर्मे ओजोऽस्तुहे परमेश्वर! मेरी जंघाओं में ओज-शरीर को धारण करने की शक्ति हो।

७- ओम् अरिष्टानि मेऽगांनि तनूस्तन्वा मे सह सन्तुहे परमेश्वर! मेरा शरीर और अंग प्रत्यंग रोग रहित या दोश रहित हों तथा ये अंग-

प्रत्यंग मेरे शरीर के साथ पुष्ट हों।

3 . मार्जन मन्त्रा:

ॐ भू: पुनातु शिरसि

ॐ भुव: पुनातु नेत्रयो

ॐ स्व: पुनातु कण्ठे

ॐ मह: पुनातु हृदये

ॐ जन: पुनातु नाभाम्‌

ॐ तप: पुनातु पादयो:

ॐ सत्यं  पुनातु पुन: शिरसि

ॐ खं रह्म पुनातु सर्वत्र

4. प्राणायाम्‌ मन्त्र:

ॐ भू:

ॐ भुव:

ॐ स्व:

ॐ मह:

ॐ जन:

ॐ तप:

ॐ सत्यं

5. अघमर्षण मन्त्र:

 

1.    ऋतं च सत्यं चाभीध्दात् पसोऽध्यजायत ।

ततो रात्र्यजायत ततो समुद्रो अर्णवो ।।ऋ 10.190.1

पदार्थ:- (ऋतं च) यथार्थ सर्वविद्याधिकरण वेदज्ञान भी (सत्यं च) सत् वर्त्तमान पदार्थों में साधु  सब को साधनेवाला तीन गुणोंवाला प्रकृति नामक उपादान तथा (अभीद्धात् तपसः) सब ओर से दीप्त ज्ञानमय तप से (अधि अजायत) प्रसिद्ध होता है (ततः) उससे (रात्री) महाप्रलय के अनन्तर प्रलयरूप रात्रि (अजायत) प्रसिद्ध होती है (ततः) पुनः (अर्णवः समुद्रः) गतिमान परमाणु समुद्र प्रसिद्ध होता है ||||

भावार्थ :- सृष्टि उत्पत्ति से पूर्व उत्पत्ति, स्थिति विषयक मूलज्ञान वेद तथा उपादान कारण प्रकृति रूप अव्यक्त सृष्टिकर्ता परमेश्वर के ज्ञानमय तप से उसके सम्मुख आते हैं | दोनों के संसर्ग से महाप्रलय का अन्त प्रलयरूप रात्रि बनती है, उससे गतिवाला हलचल करता हुआ परमाणुओं का समुद्र प्रकट हो जाता है, यह हलचल सृष्टि प्रवाह को चालू करती है ||||

व्यावहारिक अर्थ :- जीवन में ईश्वरीय विधान प्रकृति के परम सत्य नियमों के आधीन, और व्यवहार में सत्य पर  आधारित जीवन से वर्तमान दिन बनता है. ( दिन भर के व्यस्त जीवन के पश्चात ) गहरी  निद्रा के समुद्र  में आराम करने के लिए  रात्री आती है. 

Present in life forms the day that has to be lived by following the laws of Nature and by truthfully performing the daily chores. Night follows the day to provide the required rest for the body and the spirit to swim in the oceans of deep sleep. 

2. समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत् ।

अहोरात्राणिविदधद्विश्वस्य मिषतो वशी ।। ऋ  10.190.2

पदार्थ:- (अर्णवात्) गतिमान  (समुद्रात् - अधि) परमाणु समुद्रके ऊपर  उसके अनन्तर (संवत्सरः) संसार का भर का काल (अजायत) प्रसिद्ध होता है (मिषतः - विश्वस्य) गति करता हुए विश्व पृथिवी आदि पिण्ड के (अहोरात्राणि) दिन और रातों को  हर्गणों को किसके कितने हों (विदधत्) यह विधान करता हुआ (वशी) परमात्मा स्वामी होता है ||||

भावार्थ :- गतिमान् परमाणु समुद्र के पश्चात् विश्व का काल नियत होता है, फिर गति करते हुए प्रत्येक पिण्ड के दिन-रात परमात्मा नियत करता है ||||

व्यावहारिक अर्थ :- जीवन समुद्र के जलों में विचरते हुए पलक झपकते ही दिन  बीतते   जाते  वर्ष भी बीत जाते हैं  और नया वर्ष  आ जाता है.  पलक झपकते  ही  दिन रात  का  जीवन बीत जाता   हैं  जिस  पर  कोइ  वश नहीं  होता । 

Thus swimming in the ocean of life days go by in a wink and years pass away. Life comes to an end over which no one has any control.

3. सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् ।

दिवं च पृथिवीं चाऽन्तरिक्षमथो स्व:।। 10.190.3

पदार्थ:- (धाता) धारण करनेवाला परमेश्वर (सूर्याचन्द्रमसौ) सूर्य और चन्द्रमा को (यथापूर्वम्) पूर्वसृष्टि में जैसे रचा था वैसा ही तथा (दिवं च पृथिवीं च अन्तरिक्षं च) द्युलोक को , पृथिवी लोक को और अन्तरिक्षलोक को (अथ) और (स्वः) इनसे भिन्न लोक को (अकल्पयत्) रचा है - या रचता है ||||

भावार्थ :- संसार को धारण करनेवाले विधाता परमात्मा ने सूर्य चन्द्रमा द्युलोक पृथिवी लोक अन्तरिक्ष लोक और अन्य लोकान्तरों को पूर्व सृष्टि में जैसे रचा था वैसे ही इस सृष्टि में रचा है, आगे भी रचता रहेगा ||||

व्यावहारिक अर्थ :- कर्म फल के सिद्धांत के अनुसार( पुनर्जन्मके बाद) फिर वही सूर्य और और चन्द्रमा ,(काम करने के लिए ) दिन और पृथ्वी और पर्यावरण हमारे सुख के लिए प्राप्त हो जाते  हैं।

One is reborn to witness the sun, the moon, and life as previously experienced the days and the soil to work upon and the environment to lead a happy life.

मनसापरिक्रमा मन्त्र:

 1.प्राची दिगग्निरधिपतिरसितो रक्षितादित्या इषवः ।

तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु ।

योऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः  । ।AV3.27.1

जीवन में प्रगति के लिए अग्रसर होने के लिए - आगे की दिशा में  चलने के लिए  अग्नि का स्वामित्व है. जो  स्वतंत्र और आत्मनिर्भर है , ऊर्जा जिस के  भौतिक  और मानसिक स्वरूप हैं . जिन को हमारे लक्ष्य पर पहुंचाने के साधन रूप बाण सूर्य की किरणें है वे  भौतिक ऊर्जा और प्रकाश द्वारा हमारे शरीर और मन दोनों को जीवन में सब परिस्थितियों का अवलोकन करके पूरे उत्साह से अपने लक्ष्य की प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर होने की प्रेरणा देते हैं   

प्राची पूर्व की दिशा में सूर्याग्नि का अधिपति स्वामी  है, जो स्वतंत्र हैं  और सीमा बद्ध नहीं हैं . इस की रश्मियां (पृथ्वी पर आने वाले ) बाण स्वरूप हैं जो( भिन्न भिन्न प्रकार से)  हमारी रक्षा करते हैं.  इस सूर्य देवता को हम नमन करते हैं. उस के इन  रक्षक बाणों के प्रति हम नमन करते हैं | और जो हम से द्वेष करने वाले (तमप्रिय) रोगाणु इत्यादि शत्रु हैं उन्हें ईश्वरीय न्याय पर  छोड़ते हैं.

2.दक्षिणा दिगिन्द्रोऽधिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पितर इषवः।

तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु ।

योऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः  । । AV3.27.2

दक्षिण – दाहने  हाथ से कर्म प्रधान जीवन का संकल्प हमारे भीतर इन्द्र का दैवत्व स्थापित करता है. (परन्तु  इन्द्र का आचरण भी तो  स्वयं में निर्दोष  नहीं था)  अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए मतान्ध बुद्धि  भ्रष्ट हो  कर हम  भी जीवन में अपने लक्ष्य पाने के लिए , ग़लत रास्ते अपना कर ,  इन्द्र की तरह अपना संतुलन खो सकते हैं  (तिरश्चिराजी) कुछ टेढ़े मेढ़े रास्ते  भी  अपना लेते हैं . ऐसे अवसरों पर हमारे पितरों  का, पूर्व जनों का,  शास्त्रों का  मार्ग दर्शन हमारे लिए ठीक दिशा में कार्य करने लिए हमें बाण की तरह सही  दिशा निर्देश करता  है . इस इन्द्र देवत्व  के प्रति हम प्रणाम करते हैं , इंद्र द्वारा  जीवन में सुरक्षा प्रदान करने वाली उपलब्धियों को हम प्रणाम करते हैं . और जो हम से द्वेष करने वाले  हमारे अभ्युदय मे बाधक शत्रु हैं उन्हें ईश्वरीय न्याय पर  छोड़ते हैं.

3.प्रतीची दिग्वरुणोऽधिपतिः पृदाकू रक्षितान्नं इषवः ।

तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु 

योऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः  । । AV3.27.3

हमारे पीछे हमें बिना बताए वरुण देवता के भौतिक स्वरूप में जल भूमि के नीचे हर स्थान पर पहुंच कर वहां  पलने वाले पृदाकू सूक्ष्माणुओं के अधिपति हैं. इन का दायित्व ( उर्वरकता बढा कर ) भूमि से अन्न के उत्पन्न करने की  सुरक्षा है. इस के लिए हम वरुण देवता को नमन करते हैं, उन के द्वारा इस प्रकार  अन्न  की सुरक्षा की व्यवस्था को हम नमन करते हैं . और जो हमारे शत्रु जन (इन प्रकृति के नियमों के विरुद्ध  चल कर  भूमि को जल विहीन, सूक्ष्माणुओं  रहित मरुस्थल  बना कर अनुपजाउ बना देते हैं ) उन्हें  हम ईश्वरीय न्याय पर छोड़ते हैं.       

  (Modern environmental science confirms that by damaging the Rhizosphere micro flora man is turning fertile lands in to barren life less food less deserts. This is result of Nature’s relentless justice.)

 SOILS: The Hidden World Under Our Feet

By Henricus Peters on 30/06/2013

soilworld

One of the most important threats to biodiversity has received little attention — though it lies just below us…

From the NY Times Sunday special : THE world’s worrisome decline in biodiversity is well known. Some experts say we are well on our way toward the sixth great extinction and that by 2100 half of all the world’s plant and animal species may disappear.

Yet one of the most important threats to biodiversity has received little attention — though it lies under our feet.

Scientists using new analytical techniques over the last decade have found that the world’s ocean of soil is one of our largest reservoirs of biodiversity. It contains almost one-third of all living organisms, according to the European Union’s Joint Research Center, but only about 1 percent of its micro-organisms have been identified, and the relationships among those myriad life-forms is poorly understood.

Soil is the foundation on which the house of terrestrial biodiversity is built. Without robust soil ecosystems, the world’s food web would be in trouble.

To understand more, scientists recently embarked on what they call the Global Soil Biodiversity Initiative to assess what is known about soil life, pinpoint where it is endangered and determine the health of the essential ecosystem services that soil provides.

They are not just looking at soil in remote, far-off landscapes. One of the more intensive studies is taking place in New York’s Central Park.

The focus is on the life that resides in the soil — the microbes, fungi, nematodes, mites and even gophers that make up a complex web of interrelationships.

A teaspoon of soil may have billions of microbes divided among 5,000 different types, thousands of species of fungi and protozoa, nematodes, mites and a couple of termite species. How these and other pieces all fit together is still largely a mystery.

“There’s a teeming organization below ground, a factory, with soil animals and microbes, each with their own role,” said Diana H. Wall, a professor of biology at Colorado State University who has studied soil biodiversity in Antarctica and Kansas over the last two decades and who is the scientific chairwoman of the soil biodiversity initiative. “A leaf falls, and earthworms and termites are constantly ripping and tearing it apart, and microbes and fungi pass the nutrients on to plants.”

Forget the term “dumb as dirt.” The complex soil ecosystem is highly evolved and sophisticated. It processes organic waste into soil. It filters and cleans much of the water we drink and the air we breathe by retaining dust and pathogens. It plays a large role in how much carbon dioxide is in the atmosphere. Soil, with all of its organic matter, is second to the oceans as the largest carbon repository on the planet. Annual plowing, erosion and other mismanagement releases carbon in the form of carbon dioxide, and exacerbates climate change.

The last decade of research has overturned a key concept. For decades there was a saying among soil scientists — “everything is everywhere,” which meant that soil was largely the same across the globe. That has proved to be spectacularly untrue.

2003 study in the journal Ecosystems estimated that the biodiversity of nearly 5 percent of the nation’s soil was “in danger of substantial loss, or complete extinction, due to agriculture and urbanization,” though that was most likely a very conservative guess, since the planet’s soil was even more unexplored then than today, and study techniques were far less developed.

That means that species critical to some important functions could have already disappeared or be on their way out. That’s why the global soil assessment is a matter of some urgency.

There are numerous threats to soil life. Modern tillage agriculture is a big one, because it deprives soil life of organic matter it needs for food, allows it to dry out and adds pesticides, herbicides and synthetic nitrogen. Soil “sealing” from the asphalt and concrete of suburban sprawl destroys soil life, as do heavy machinery and pollution. Even long-ago insults like acid rain still take a toll on life in the soil by having made the soil more acidic.

THE problem is global. In nearly half of Africa, for example, overgrazing and intensive agriculture has destroyed topsoil and led to desertification.

 

4.उदीची दिक्सोमोऽधिपतिः स्वजो रक्षिताशनिरिषवः।

तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु 

योऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः  । । AV3.27.4

ये बांए  दिशा मे शरीर में स्थापित  मानव हृदय है,  जो हमारी मानसिकता  में उत्पन्न मानव जीवन मूल्यों के  भाव का प्रधान स्थान है, जिस का सोम अधिपति है, उस के लिए प्रणाम |  मानव हृदय  स्वचालित  विद्युत नियन्त्रक नियम  से  सहज कार्य करता रहता है. यह  नियम संसार में  हमारे जीवन के सुखों का आधार बनता है. प्रकृति के इस दान के लिए हम अत्यन्त  आभारी हैं .  और इस दिशा में जो बाधा पहुंचाने वाले तत्व हैं उन्हें हम न्यायोचित परिणाम के लिए प्रकृति को ही समर्पित करते हैं .

(आधुनिक शारीरिक विज्ञान के अनुसार मानव हृदय जो निरंतर एक निश्चित गति से रक्त को  स्वच्छ कर के सारे शरीर में  शुद्ध  रक्त का संचार और दूषित पदार्थों का निकास कर  रहा है,  वह मानव शरीर मे प्रकृति द्वारा स्वत: उत्पन्न विद्युत प्रणाली के कारण से ही  है. विद्युत को मोटर आदि चला कर प्रयोग में लाने के लिए वैज्ञानिक  Fleming’s Left Hand Rule फ्लेमिन्ग के बाएं  हाथ का नियम बताते  हैं . यह विद्युत क्रिया प्रकृति का सहज नियम है. )  

 ( यही  ऋषि  चिंतन में स्वजोरक्षिताशनि:इषव: का विज्ञान है )

इस अद्भुत विद्युत प्रणाली के लिए हम नमन करते हैं , इस व्यवस्था  के द्वारा हमारे शरीर की रक्षा  के लिए हम नमन करते हैं , और जो हमारे हृदय के सुचारु कार्य करने में बाधा रूपीशत्रु हैं उन्हें हम ईश्वरीय न्याय व्यवस्था पर  छोड़ते   है.

On our left side is situated the ruler of all our motivations and emotions (our HEART). (Heart’s)  self generated independent proper working protects our physical body to ensures orderly life and human existence. For this blessing of Nature we are ever grateful.

{It was in deep meditation on the left side of human body that the Rishi could perceive the working of the human heart that operates continuously because it generates its own electrical  signal (also called an electrical impulse.

(Fleming’s Left Hand Rule on relations between electrical forces is very famous.  This motive action of heart electricity comes as a natural, property of electrical phenomenon. )  

Modern medical science is able to record this electrical impulse  by placing electrodes on the chest. This is called an electrocardiogram (ECG, or EKG).The cardiac electrical signal controls the heartbeat in two ways. First, since each impulse leads to one heartbeat, the number of electrical impulses determines the heart rate. And second, as the electrical signal "spreads" across the heart, it triggers the heart muscle to contract in the correct sequence, thus coordinating each heartbeat and assuring that the heart works as efficiently as possible.

The heart's electrical signal is produced by a tiny structure known as the sinus node, which is located in the upper portion of the right atrium. (You can learn about the heart's chambers and valves here.) From the sinus node, the electrical signal spreads across the right atrium and the left atrium, causing both atria to contract, and to push their load of blood into the right and left ventricles. The electrical signal then passes through the AV node to the ventricles, where it causes the ventricles to contract in turn.

 

This left hand motor action natural property of electricity (Fleming’s Rule) provides us with great comforts in our life. For this act of kindness we are ever grateful to Nature and present the impediments in our path for Nature itself to resolve.

There is another more direct way to perceive a very close connection of self generated electricity with human body that could not escape a Rishi’s perception in meditation.  Human heart located on our left side of the body is self regulated by electronic oscillator at 60 to 70 beats per minute to make us live. Modern scientific explanation of the phenomenon is being furnished below.

 http://hyperphysics.phy-astr.gsu.edu/hbase/biology/imgbio/heartsketch4.gif

The rhythmic contractions of the heart which pump the life-giving blood occur in response to periodic electrical control pulse sequences. The natural pacemaker is a specialized bundle of nerve fibers called the sinoatrial node (SA node). Nerve cells are capable of producing electrical impulses called action potentials. The bundle of active cells in the SA node trigger a sequence of electrical events in the heart which controls the orderly pattern of muscle contractions that pumps the blood out of the heart.

The electrical potentials (voltages) that are generated in the body have their origin in membrane potentials where differences in the concentrations of positive and negative ions give a localized separation of charges. This charge separation is called polarization. Changes in voltage occur when some event triggers a depolarization of a membrane, and also upon the re-polarization of the membrane. The depolarization and re-polarization of the SA node and the other elements of the heart's electrical system produce a strong pattern of voltage change which can be measured with electrodes on the skin. Voltage measurements on the skin of the chest are called an electrocardiogram or ECG.

 

http://hyperphysics.phy-astr.gsu.edu/hbase/biology/imgbio/heartpump.gif

 

5.ध्रुवा दिग्विष्णुरधिपतिः कल्माषग्रीवो रक्षिता वीरुध इषवः ।

तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु 

योऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः  । । AV3.27.5

ध्रुवा पृथ्वी पर हमारे भौतिक जीवन के विकास का आधार विष्णु है जिस की रक्षा नाना प्रकार की वनस्पति लताओं का उदाहरण है जिन का विकास और उन्नति  पृथ्वी के स्वाभाविक गुरुत्वाकर्षण  के विरुद्ध दिशा में कार्य करने से होती है.  इन वनस्पतियों का पोषण  पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध पौधों की जड़ों  से low surface tension के द्वारा होता है. इस प्रकार प्रकृति के साधारण स्वभाव के विरुद्ध कर्म से ही प्रगति मिलती है. इसी प्रकार समस्त विकास और उन्नति आराम आलस्य जैसी स्वभाविक वृत्तियों के विरुद्ध कर्मठता द्वारा ही होता है. इस व्यवस्था  के द्वारा हमारे विकास और उन्नति की व्यवस्था के  लिए हम नमन करते हैं , और जो हमारे अध्यवसायी कर्मठ आचरण के हमारा चित्त को विचलित कर के  सुचारु कार्य करने में बाधा रूपीशत्रु हैं उन्हें हम ईश्ररीय न्याय व्यवस्था पर  छोड़ते है.

( सृष्टि  के नियमानुसार हर मरणधर्मा जब तक प्रकृति के क्षय नियम के विरुद्ध सहज स्वभाव और सद्प्रेरणा से निज प्रयत्न द्वारा जन्मोपरांत वृद्धि और शारीरिक उन्नति द्वारा यौवन बल और उन्नति को प्राप्त करता है, वही काल के नियमानुसार भौतिक जीवन में उन्नति के शिखर पर पहुंच कर भौतिक क्षय को जरावस्था से होते हुए मृत्यु को पाता है. परंतु अपने प्रयत्न द्वारा मृत्युर्मामृतं गमय  के लक्ष को प्राप्त करनेमें सदैव लगा रहता है ) .

 

On the physical plain according to laws of nature Entropy tends to infinity. Progress and growth are products of negative Entropy. In case of plants they grow upwards by defying the natural force of transpiration pull, surface tension, Root pressure against Gravitation. Growth of plants is made possible by the rise of nutrients through the roots of the plants against the force of Gravity by the self sustained force of low Surface Tension.  We are grateful for our growth and progress for being provided with the wisdom to operate by negative Entropy and negative natural tendencies of easy life and laziness.  We want to protect ourselves from distractions that form obstacles by diverting us from the path of living a life of hard work to make progress by negative Entropy, and leave the superior forces of Nature and society to deal with these distractions.

(All things born grow and make progress till they progress proceeds as programmed to peak out by negative entropy on physical plane. Inevitable march of time takes its toll by natural law of entropy tending to infinity and leads to result in extinction of the life born.)

 

6.ऊर्ध्वा दिग्बृहस्पतिरधिपतिः श्वित्रो रक्षिता वर्षं इषवः ।

तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु 

योऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः  । । AV3.27.7

भौतिक उन्नति के शिखर पर पहुंचने के लिए बृहस्पति का आश्रय मिलता है ,जो निष्कपट निश्छल उत्तम  ज्ञान और  वाणी द्वारा  इसी प्रकार आवश्यक है जैसे मेघ से वर्षा के  बाण पर्यावरण को शुद्ध  और निर्मल बना कर हमारी रक्षा करते हैं.

हम इस व्यवस्था के प्रति नमस्कार करते हैं, इस प्रकार हमें सुरक्षा  प्रदान करने के लिए नमस्कार करते हैं  और जो हमारे जीवन  मार्ग में शत्रु  रूपी वायुमंडल को प्रदूषित करने वाली शत्रुरूपी  बाधाएं होती हैं  उन्हें हम समाजिक ईश्वरीय न्याय पर छोड़ते हैं .

उपस्थान  मन्त्र:

उदु॒ त्यं जा॒तवे॑दसं दे॒वं व॑हन्ति के॒तवः॑।

दृ॒शे विश्वा॑य॒ सूर्य॑म्॥ऋ1.50.1॥पुनरुक्त अथर्व 13.2.16, पुनरुक्त अथर्व 20.47.16

व्यावहारिक  व्याख्या :-  हे मनुष्यो! तुम जैसे (केतवः) किरणें (विश्वाय) सबके (दृशे) दीखने (उ) और दिखलाने के योग्य व्यवहार के लिये (त्यम्) उस (जातवेदसम्) उत्पन्न किये हुए पदार्थों को प्राप्त करने वाले (देवम्) प्रकाशमान (सूर्य्यम्) रविमण्डल के (उद्वहन्ति) ऊपर बहती हैं, वैसे ही गृहाश्रम का सुख देने के लिये सुशोभित स्त्रियों को विवाह विधि से प्राप्त होओ॥1॥

भावार्थःधार्मिक माता-पिता आदि विद्वान् लोग जैसे घोड़े रथ को और किरणें सूर्य्य को प्राप्त करती हैं, ऐसे ही विद्या और धर्म के प्रकाशयुक्त अपने तुल्य स्त्रियों से सब पुरुर्षों का विवाह करावें॥1॥

उद्व॒यं तम॑स॒स्परि॒ ज्योति॒ष्पश्य॑न्त॒ उत्त॑रम्।

दे॒वं दे॑व॒त्रा सूर्य॒मग॑न्म॒ ज्योति॑रुत्त॒मम्॥ ऋ1.50.10॥ पुनरुक्त अथर्व 13.2.25, , पुनरुक्त अथर्व 20.47.25

व्यावहारिक  व्याख्या :-   हे मनुष्यो! जैसे (ज्योतिः) ईश्वर ने उत्पन्न किये प्रकाशमान सूर्य्य को (पश्यन्तः) देखते हुए (वयम्) हम लोग (तमसः) अज्ञानान्धकार से अलग होके (ज्योतिः) प्रकाशस्वरूप (उत्तरम्) सब से उत्तम प्रलय से ऊर्ध्व वर्त्तमान वा प्रलय करने हारा (देवत्रा) देव, मनुष्य, पृथिव्यादिकों में व्यापक (देवम्) सुख देने (उत्तमम्) उत्कृष्ट गुण, कर्म, स्वभाव युक्त (सूर्यम्) सर्वात्मा ईश्वर को (पर्युदगन्म) सब प्रकार प्राप्त होवें, वैसे तुम भी उस को प्राप्त होओ॥10॥

भावार्थःइस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि परमेश्वर के सदृश कोई भी उत्तम पदार्थ नहीं और न इस की प्राप्ति के विना मुक्ति सुख को प्राप्त होने योग्य कोई भी मनुष्य हो सकता है, ऐसा निश्चित जानें॥10॥

 

1.चि॒त्रं दे॒वाना॒मुद॑गा॒दनी॑कं॒ चक्षु॑र्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्या॒ग्नेः।

आप्रा॒ द्यावा॑पृथि॒वी अ॒न्तरि॑क्षं॒ सूर्य॑ आ॒त्मा

जग॑तस्त॒स्थुष॑श्च॥ऋ1.115.1॥पुनरुक्त अथर्व 13.2.35, पुनरुक्त अथर्व 20.107.14.

व्यावहारिक  व्याख्या:- (चित्रम्‌) अद्‌भुत विचित्र (देवानाम्‌ ) विद्वान्‌ और अच्छे अच्छे पदार्थों वा (मित्रस्य) मित्र के समान सूर्य तथा (वरुणस्य)आनन्द देने वाले जल और जल से अनेकपदार्थों को प्राप्त कराने वाला चन्द्रलोक तथा (अग्ने:)  ऊर्जा विद्युत्‌ और सब पदार्थों का जो (अनीकम्) सूर्य को देखने से  नही दिखाई देते (चक्षु:) उन सब को  दिखलाने वाले (उदगात) उत्तमता से प्राप्तकराने वाला जगदीश्वर (सूर्य्यः) सूर्य्य के समान ज्ञान का प्रकाश करनेवाला विज्ञान से परिपूर्ण (जगतः) जङ्गम अर्थात् चराचर (च) और (तस्थुषः) स्थावर अर्थात्‌ जड़ जगत् का (आत्मा) अपनी सत्ता से  (अन्तरिक्षम्) आकाश (द्यावापृथिवी) अन्तरिक्षऔर पृथ्वी  का  (आ, अप्राः) अच्छे प्रकार से निर्माण किया है।

 

तच्चक्षु॑र्दे॒वहि॑तं पु॒रस्ता॑च्छु॒क्रमुच्च॑रत्। पश्ये॑म श॒रदः॑ श॒तं जीवे॑म श॒रदः॑ श॒तशृणु॑याम श॒रदः॑ श॒तं प्र ब्र॑वाम श॒रदः॑ श॒तमदी॑नाः स्याम श॒रदः॑ श॒तं भूय॑श्च श॒रदः॑ श॒तात्॥यजु36.24॥

पदार्थःहे परमेश्वर! आप जो (देवहितम्) विद्वानों के लिये हितकारी (शुक्रम्) शुद्ध (चक्षुः) नेत्र के तुल्य सबके दिखानेवाले (पुरस्तात्) पूर्वकाल अर्थात् अनादि काल से (उत्, चरत्) उत्कृष्टता के साथ सबके ज्ञाता हैं, (तत्) उस चेतन ब्रह्म आपको (शतम्, शरदः) सौ वर्ष तक (पश्येम) देखें (शतम्, शरदः) सौ वर्ष तक (जीवेम) प्राणों को धारण करें, जीवें (शतम्, शरदः) सौ वर्ष पर्य्यन्त (शृणुयाम) शास्त्रों वा मङ्गल वचनों को सुनें (शतम्, शरदः) सौ वर्ष पर्य्यन्त

 

(प्रब्रवाम) पढ़ावें वा उपदेश करें (शतम्, शरदः) सौ वर्ष पर्य्यन्त (अदीनाः) दीनतारहित (स्याम) हों (च) और (शतात्, शरदः) सौ वर्ष से (भूयः) अधिक भी देखें, जीवें, सुनें, पढ़ें, उपदेश करें और अदीन रहें॥२४॥

भावार्थःहे परमेश्वर! आपकी कृपा और आपके विज्ञान से आपकी रचना को देखते हुए आपके साथ युक्त नीरोग और सावधान हुए हम लोग समस्त इन्द्रियों से युक्त सौ वर्ष से भी अधिक जीवें, सत्य शास्त्रों और गुणों को सुनें, वेदादि को पढ़ावें, सत्य का उपदेश करें, कभी किसी वस्तु के विना पराधीन न हों, सदैव स्वतन्त्र हुए निरन्तर आनन्द भोगें और दूसरों को आनन्दित करें॥२४॥

 

  भू: र्भुव: स्व:, तत् स॑वि॒तुर्वरे॑ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि। धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥यजु3.35॥ऋ3.62.10

पदार्थःहम लोग (सवितुः) सब जगत् के उत्पन्न करने वा (देवस्य) प्रकाशमय शुद्ध वा सुख देने वाले परमेश्वर का जो (वरेण्यम्) अति श्रेष्ठ (भर्गः) पापरूप दुःखों के मूल को नष्ट करने वाला तेजःस्वरूप है (तत्) उसको (धीमहि) धारण करें और (यः) जो अन्तर्यामी सब सुखों का देने वाला है, वह अपनी करुणा करके (नः) हम लोगों की (धियः) बुद्धियों को उत्तम-उत्तम गुण, कर्म, स्वभावों में (प्रचोदयात्) प्रेरणा करे॥३५॥

भावार्थःमनुष्यों को अत्यन्त उचित है कि इस सब जगत् के उत्पन्न करने वा सब से उत्तम सब दोषों के नाश करने तथा अत्यन्त शुद्ध परमेश्वर ही की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करें। किस प्रयोजन के लिये, जिससे वह धारण वा प्रार्थना किया हुआ हम लोगों को खोटे-खोटे गुण और कर्मों से अलग करके अच्छे-अच्छे गुण, कर्म और स्वभावों में प्रवृत्त करे, इसलिये। और प्रार्थना का मुख्य सिद्धान्त यही है कि जैसी प्रार्थना करनी, वैसा ही पुरुषार्थ से कर्म का आचरण करना चाहिये॥३५॥

नमः॑ शम्भ॒वाय॑ च मयोभ॒वाय॑ च॒ नमः॑ शङ्क॒राय॑ च मयस्क॒राय॑ च॒ नमः॑ शि॒वाय॑ च शि॒वत॑राय च॥ यजु 16.41

पदार्थःजो मनुष्य (शभ्मवाय) सुख को प्राप्त कराने हारे परमेश्वर (च) और (मयोभवाय) सुखप्राप्ति के हेतु विद्वान् (च) का भी (नमः) सत्कार (शङ्कराय) कल्याण करने (च) और (मयस्कराय) सब प्राणियों को सुख पहुँचाने वाले का (च) भी (नमः) सत्कार (शिवाय) मङ्गलकारी (च) और (शिवतराय) अत्यन्त मङ्गलस्वरूप पुरुष का (च) भी (नमः) सत्कार करते हैं, वे कल्याण को प्राप्त होते हैं॥४१॥

भावार्थःमनुष्यों को चाहिये कि प्रेमभक्ति के साथ सब मङ्गलों के दाता परमेश्वर की ही उपासना और

 

 

 

 

 

 

 

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