Thursday, July 28, 2011

Competitive Spirit

R V10.166 Competitive spirit सपत्नघ्नम्‌
ऋषि:- ऋषभो वैराज:, शाक्करोवा- ‘ऋषभ’ शब्द ‘पुरुषर्षभ’ आदि शब्दों से श्रेष्ठका वाचक है | यह कामादि शत्रुओं को नष्ट करके ही तो श्रेष्ठ बनता है. 1) सो कामविध्वंस से यह ‘वि+राज्‌’ = विशेष रूप से शोभायमान होने से ‘वैराज’ है| शक्तिशालियों में श्रेष्ठ होने से ‘ शाकर’ है |
ऋषभं मा समानानां सपत्नानां विषासहिम्‌ |
हन्तारं शत्रूणां कृधि विराजं गोपतिं गवाम्‌ || ऋ10.166.1
हे इन्द्र,- मेरी मानसिकता मुझे सहकर्मियों- समान पद वालों में श्रेष्ठ बनाए.
मेरा अहित करने वालों मेरे से स्पर्धा करने वालों को पराजित करने में मुझे समर्थ बनाए. इन शत्रुओं का नाश करके अत्यंत शोभनीय जीवन अर्जित करूं.
अहमस्मि सपत्नहेन्द्र इवारिष्टो अक्षतः |
अधः सपत्नामे पदोरिमे सर्वे अभिष्ठिताः || ऋ10.166.2
मैं इन्द्र के समान किसी से आहत ,पराजित न होऊं. मेरे सब प्रतिद्वन्दि मेरे नीचे रहें.
अत्रैव वोSपि नह्याम्युभे आर्त्नी इव ज्यया |
वाचस्पते निषेधेमान यथा मदधरं वदान्‌ || ऋ10.166.3
हे वाचस्पति मुझे वाणि का सामर्थ्य प्रदान कर जिस से मैं सब की प्रतिकूल शङ्का का निवारण कर सकूं.
अभिभूरहमागमं विश्वकर्मेण धाम्ना |
आ वश्चित्तमा वो व्रतमा वोSहं समितिं ददे || ऋ10.166.4
विश्व भर में अपने सफल कार्यं के अनुभव के आधार पर मेरा तेज और ख्याति सब प्रदिद्वन्दियों को शान्त करे
योगक्षेमं व आदायाSहं भूयासमुत्तम आ वो मूर्धानमक्रमीम्‌ |
अधस्पदानन्म उद्वदत मण्डूका इवोदकान्मण्डूका उदकादिव ||ऋ10.166.5
योगक्षेम की विभूति से मैं सर्वश्रेष्ट बनूं. अविद्वत जन मेंढकों की तरह व्यर्थ जल में शोर करते रहें

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