Gyaanam- Vedas On Knowledge - Rig Veda Book 10 Hymn 71
Baby prattle
बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं यत प्रेरत नामधेयं दधानाः |
यदेषां श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत् प्रेणा तदेषां निहितं गुहाविः ||ऋ10/71/1
(प्रथमं नामधेयं दधाना: यत् प्र ऐरत्) आरम्भ में बालक पदार्थों का नाम रख कर जो कुछ बोलते हैं (वाच: अग्रम) वह वाणी का प्रथम स्वरूप है (एषां यत् श्रेष्ठं यत् अरिप्रं आसीत् ) वह शुद्ध निष्पाप ज्ञान से उत्पन्न होता है , (एषां तत् गुहा निहितं प्रेणा आवि: ) जो गुप्त है और प्रेम के कारण प्रकट हुवा है.
Develop an Articulate child
सक्तुमिव तित `उना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत |
अत्रा सखायः सख्यानि जानते भद्रैषां लक्ष्मीर्निहिताधि वाचि || ऋ10/71/2
(तितौना सक्तुं इव पुनन्त:) जैसे सूप से सत्तू को स्वच्छ कर लेते हैं- छिलके भूसी हटा देते हैं ( धीरा यत्र मनसा वाचम् अक्रत्) उसी प्रकार बुद्धिमान पुरुष बुद्धि से उस (बच्चों की) वाणी को परिमार्जित करते हैं ( अत्र सखाय: सख्यानि जानते) प्रेम से (वाणी के) ज्ञान की शिक्षा देते हैं (एषां अधि वाचि भद्रा लक्ष्मी: निहिता) इस प्रकार से प्रयोग की वाणी मे कल्याण कारक मंगलमयी लक्ष्मी स्थापित होती है.-
भावार्थ: बच्चों की तुतलाती भाषा को बुद्धिमान माता पिता गुरुजन परिमार्जित कर के, उन के जीवन मे कल्याण कारक मंगलमयी लक्ष्मी दायक मृदु भाषा स्थापित करते हैं. (प्रियं ब्रूयात्)
Vocal Communication Skills
यज्ञेन वाचः पदवीयमायन् तामन्वविन्दन्नृषिषु प्रविष्टाम |
तामाभृत्या व्यदधुः पुरुत्रा तां सप्त रेभा अभि सं नवन्ते ||
ऋ10/71/3
(वाच: पदवीयं यज्ञेन आयन् ) इस प्रकार बुद्धिमान जन, उर्कृष्ट वाणी से यज्ञ्यों द्वारा प्रतिष्ठित पद प्राप्त करते हैं. (ऋषिषु प्रविष्ठां तां अविंदन्) ऋषियों द्वारा दिये ज्ञान को आधार बना कर.(तां आभृत्य पुरुत्रा व्यदधु:) सहायक भृत्यों के द्वारा दूर दूर तक प्रतिष्ठित होते हैं .( तां सप्त रेभा:अभि सं नवन्ते) इस प्रकार उत्कृष्ट वाणी द्वारा सभी सम्भव उन्नति प्राप्त करते हैं .
भावार्थ: उत्कृष्ट वाणी द्वारा ही भावोद्दीपक प्रभाव से सामुहिक योजनाओं मे सफलता प्राप्त होती है. –
Develop knowledge based communication skills
उत त्व: पश्यन न ददर्श वाचमुत त्व: शृण्वन न शृणोत्येनाम|
उतो त्वस्मै तन्वं वि सस्रे जायेव पत्य उशती सुवासाः || ऋ10/71/4
(उत त्व: वाचं पश्यन् न ददर्श) कोइ तो अपनी वाणी को मन से अज्ञान के कारण नही परखता (उत त्व: एनां शृण्वन् न शृणोति) दूसरा अपनी वाणी के अर्थ और प्रभाव नही समझता,(उतो त्वस्मै तन्वं वि सस्रे) परन्तु वाणी तो अपने ज्ञान रूप प्रकाश से समाज में इसी प्रकार से शोभा बढाती है ( पत्ये सुवासा: उशती जाया इव) जैसे सुंदर परिधान में अपने पति के सुख के लिए रमणीय पत्नि अनुकूल वातावरण बनाती है.
Knowledge based Articulate Skill
उत त्वं सख्ये स्थिरपीतमाहुर्नैनं हिन्वन्त्यपि वाजिनेषु |
अधेन्वा चरति माययैष वाचं शुश्रुवाँ अफलाम पुष्पाम || ऋ10/71/5
(उत त्वं सख्ये स्थिर्पीतं आहु:) सार्थक ज्ञान पूर्ण वाणी द्वारा विद्वान मित्रों मे स्थान पाया जाता है , ( वाजिनेषु अपि एनं न हिन्वन्ति) वाणी सामर्थ्य द्वारा श्रेष्ठ स्थान पाए जाते हैं (वाचं अफलां अपुष्पां शुश्रुवान्) जो वाणी के इन फलों फूलों के बिना अध्ययन करता है ( एष: अधेन्या मायया चरति) वह एक बंध्या गौ के समान है, समाज में अपनी वाणी का छल पूर्वक प्रयोग करता है.
( आधुनिक व्यापार के विज्ञापन और संचार माध्यम मे यह माया जाल खूब देखने को मिलता है)
यस्तित्याज सचिविदं सखायं न तस्य वाच्यपि भागो अस्ति |
यदीं शृणोत्यलकं शृणोति नहि प्रवेद सुकृतस्य पन्थाम || ऋ10/71/6
(य: सचिविदं सखायं ते त्याज) जो विद्वान ज्ञान की इस परोपकारी वृत्ति को त्याग देता है ( तस्य वाचि अपि भाग: न अस्ति) उस की वाणी मे कोइ कल्याणकारी फल नहीं मिलता (ईम् यत् शृणोति अलकं शृणोति) और जो उसे सुनते हैं व्यर्थ ही सुनते हैं( हि सुकृतस्य पंथां न प्रवेद) उस से सत्कर्म और कल्याण का मार्ग प्रशस्त नहीं होता .
All men are not born Equal
अक्षण्वन्तः कर्णवन्तः सखायो मनोजवेष्वसमा बभूवुः |
आदघ्नास उपकक्षास उ त्वे हृदा इव स्नात्वा उत्वे ददृश्रे || ऋ10/71/7
(अक्षण्वन्त: कर्णवंत: सखाय: ) आंख से, कान से, समान ज्ञान ग्रहण करने वाले मित्र भी ( मनोजवेषु असमा: बभूवु:) मन से जानने योग्य ज्ञान में एक समान नहीं होते. ( हृदा: आदघ्नास:) जैसे भूमि पर कोइ जलाशय मुख तक गहरायी वाले और (त्वे उ उपकक्षास: इव) कोइ कमर तक जल वाले तलाब जैसे(स्नात्वा: उ त्वे) स्नान करने योग्य होते हैं. इसी प्रकार मनुष्यों मे भी ज्ञान की दृष्टि से असमानता रहती है.
Intellectual keep their company
हृदा तष्टेषु मनसो जवेषु यद्ब्राह्मणाः संयजन्ते सखायः |
अत्राह त्वं वि जहुर्वेद्याभिरोहब्रह्माणो विचरन्त्यु त्वे ||
ऋ10/71/8
(सखाय: ब्राह्मणा: हृदा तष्टेषु) समान योग्यता वाले विद्वत् गण हृदय से एक साथ होने की चेष्टा करते हैं (मनस: जवेषु यत् संयजन्ते) वेदों के विद्या ज्ञान के निरूपण परीक्षणके लिए एकत्र होते हैं.(अत्र त्वं वेद्याभि: वि जुहु: ) तब कुछ व्यक्तियो की अरुचि के कारण उन का सम्पर्क छोड देते हैं (अह ओह्ब्रह्माण: उ त्वे विचरन्ति) और कुछ विद्या वेदादि से ज्ञान की प्रगति मे लगे रहते हैं.
Livelihood of Non intellectuals
इमे ये नार्वाङ्न परश्चरन्ति न ब्राह्मणासो न सुतेकरासः |
त एते वाचमभिपद्य पापया सिरीस्तन्त्रं तन्वते अप्रजज्ञयः || ऋ10/71/9
(इमे ये न अर्वाक् न पर: न चरन्ति)और वे अकर्मन्य लोग जो न वर्तमान न भविष्य के बारे मे चिंतन करते हैं ( न ब्राह्मणास: न सुकेतरास: ) जिन्हें न वेद ज्ञान है न बुद्धि जन्य विज्ञान कार्य कौशल निपुणता है (अप्रजयज्ञ: ) यथार्थ ज्ञान के अभाव में ( ते एते पापया वाचं अभिपद्य) वे पापकारिणी अज्ञान युक्त लौकिक व्यवहार (सिरी: तन्त्रं तन्वते) मे प्रवृत्त हो कर अपने परिवार की वृद्धि और अपने भौतिक शरीर की वृद्धि मे व्यस्त रहते हैं.
Expert Seminars
सर्वे नन्दन्ति यशसागतेन सभासाहेन सख्या सखायः |
किल्बिषस्पृत पितुषणिर्ह्येषामरं हितो भवति वाजिनाय ||ऋ10/71/10
(सर्वे सखाय: सभासाहेन सख्या आगतेन यशसा नन्दन्ति ) (एषां पितुषणि: किल्बिषस्पृत्) (वाजिनाय हित: अरं भवति)
शिक्षित विद्वानों की जन सभा मे अध्यक्षता करने वाले आगंतुक वक्ता की विद्वत्ता और ज्ञान से सब आनन्दित होते हैं .इस प्रकार की गोष्ठियों से ही समाज में अन्न की वृद्धि और पाप के नाश से बल और सामर्थ्य बढता है.
Specialized Experts
ऋचां त्वो पोषमास्ते पुपुष्वान गायत्रं तवो गायति शक्वरीषु |
ब्रह्मा त्वो वदति जातविद्यां यज्ञस्य मात्रां वि मिमीत उ त्व: || ऋ10/71/11
(त्व: ऋचां पोषं पुपुष्वान् आस्ते) (त्व: शक्वरीषु गायत्रयं गायति) (त्व: ब्रह्मा ज्ञातविद्यां वदति) (उ त्व: यज्ञस्य मात्रां वि मिमीते)
एक स्तोता विद्वान् वेद मंत्रों का यज्ञानुष्ठान में विधिवत प्रयोग , दूसरा छंद ज्ञान से साम वेद, तीसरा इष्ट कार्यों में प्रायष्चित और विद्या का ज्ञान देता है , तो अन्यविभिन्न कार्यों के हतु विभिन्न यज्ञों का अनुष्ठान कराता है.
वाक शक्ति
RV10.125, AV4.30
1.अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेव्यैः !
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्यमिंद्राग्नी अहमश्विनोभा !!
अथर्व 4.30.1,ऋ10.125.1
मैं वाक शक्ति पृथिवी के आठ वसुओं , ग्यारह प्राण.आदित्यै बारह मासों, विश्वेदेवाः ऋतुओं और मित्रा वरुणा दिन और रात द्यौलोक और भूलोक सब को धारण करती हूं. ( मानव सम्पूर्ण विश्व पर वाक शक्ति के सामर्थ्य से ही अपना कार्य क्षेत्र स्थापित करता है)
2. अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषो प्रथमा यज्ञियानाम्!
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयंतः !!
अथर्व 4.30.2 ऋ10.125.3
मैं (वाक शक्ति) जगद्रूप राष्ट्र की स्वामिनी हो कर धन प्रदान करने वाली हूँ , सब वसुओं को मिला कर सृष्टि का सामंजस्य बनाये रख कर सब को ज्ञान देने वाली हूँ. यज्ञ द्वारा सब देवों मे अग्रगण्य हूँ. अनेक स्थानों पर अनेक रूप से प्रतिष्ठित रहती हूँ.
3.अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवानामुत मानुषाणाम् !
तं तमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम् !!
अथर्व 4.30.3ऋ10.125.5
संसार में जो भी ज्ञान है देवत्व धारण करने पर मनुष्यों में उस दैवीय ज्ञान का प्रकाश मैं (वाक शक्ति) ही करती हूँ. मेरे द्वारा ही मनुष्यों में क्षत्रिय स्वभाव की उग्रता, ऋषियों जैसा ब्राह्मण्त्व और मेधा स्थापित होती है.
4.मया सोSन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्रणीति य ईं शृणोत्युक्तम् !
अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धेयं ते वदामि !!अथर्व 4.30.4ऋ10.125.4
मेरे द्वारा ही अन्न प्राप्ति के साधन बनते हैं , जो भी कुछ कहा जाता है, सुना जाता है, देखा जाता है, मुझे श्रद्धा से ध्यान देने से ही प्राप्त होता है. जो मेरी उपेक्षा करते हैं , मुझे अनसुनी कर देते हैं, वे अपना विनाश कर लेते हैं.
5.अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विशे शरवे हन्तवा उ !
अहं जनाय सुमदं कृणोभ्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश !!
अथर्व 4.30.5ऋ10.125.6
असमाजिक दुष्कर्मा शक्तियों के विरुद्ध संग्राम की भूमिका मेरे द्वारा ही स्थापित होती है. पार्थिव जीवन मे विवादों के निराकरण से मेरे द्वारा ही शांति स्थापित होती है.
6. अहं सोममाहनसं विभर्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम् !
अहं दधामि द्रविणा हविष्मते सुप्राव्या3 यजमानाय सुन्वते !!
अथर्व 4.30.6 ऋ10.125,2
श्रम, उद्योग, कृषि, द्वारा जीवन में आनंद के साधन मेरे द्वारा ही सम्भव होते हैं . जो धन धान्य से भर पोर्र समृद्धि प्रदान करते हैं.
7. अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्व1न्तः समुद्रे !
ततो वि तिष्ठे भुवनानि विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृश्यामि !!
अथर्व 4.30.7ऋ10.125.7
मैं अंतःकरण में गर्भावस्था से ही पूर्वजन्मों के संस्कारों का अपार समुद्र ले कर मनुष्य के मस्तिष्क में स्थापित होती हूँ पृथ्वी तथा द्युलोक के भुवनों तक स्थापित होती हूँ.
8.अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा !
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिम्ना सं बभूव !!
अथर्व 4.30.8 ऋ 10.125.8
मैं ही सब भुवनों पृथ्वी के परे द्युलोक तक वायु के समान फैल कर अपने मह्त्व को विशाल होता देखती हूँ
Sir,
ReplyDeleteThanks for the wonderful information. Hope to see more such posts on Vedic wisdom.
Regards,
Prasad
Thanks for the wonderful information. Hope to see more such posts on Vedic wisdom.
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