Thursday, July 28, 2011

Progress आत्मोन्नति

Atmonnati – आत्मोन्नति
(प्रथम मानवोपदेश)
Atharv5.1
ऋधङ्मन्त्रो योनि य आ बभूवामृतासुर्वर्धमान: सुजन्मा !
अदब्धासुर्भ्राजमानोSहेव त्रितो धर्ता दाधार त्रीणि !! अथर्व5/1/1
मानव अमृतमयी प्राणशक्ति से युक्त, न दबने वाले ऋत (सत्य) ज्ञान से युक्त, सुंदर जन्म ले कर आत्मिक शक्ति से बढता हुवा (आत्मिक शक्ति सत्य से ही बढती है) , दिन के प्रकाश समान( सत्य निष्ठा और आत्मिक बल से उत्पन्न तेज युक्त) समाज के रक्षण, धारण का सामर्थ्य एवम् तीनो लोकों के लिए स्वाधीनता से कर्म करने की क्षमता प्राप्त करता है.
आ यो धर्माणिप्रथम: ससाद ततो वपूंषि कृणुते पुरूणि !
धास्युर्योनि प्रथम आ विवेशा यो वाचमनुदितां चिकेत !! अथर्व 5/1/2
जो जन आरम्भ से ही धर्म का मार्ग अपनाते हैं, वे अनेक भौतिक , मानसिक, अव्यक्त शक्तियों को प्राप्त करते हैं, इस प्रकार सृष्टि के आरम्भ (किसी योजना के आरम्भ) से ही समाज निर्माण मे मूल भूमिका निभाते हैं. वही जन समाज में नेतृत्व का स्थान पाते हैं

यस्ते शोकाय तन्वंरिरेच क्षरद्धिरण्यं शुचयोSनु स्वा: !
अत्रादधेते अमृतानि नामास्ते वस्त्राणिविश एरयन्ताम!! अथर्व 5/1/3
जो जन अपनी शरीर के भौतिक अभिमान को त्याग कर अपने ज्ञान से समाज के लिए स्वर्णिम भविष्य बनाने के बारे मे अपना योगदान देता है, द्यावा भूमि उनके प्रयासों को सुखैश्वर्य रूप फल प्रदान करते हैं. समाज के प्रजाजन भी इस प्रकार के कार्यों मे अपना योग दान प्रदान करें.
(प्रत्येक को अपनी ही उन्नति मे सन्तुष्ट न रहना चाहिये किंतु सब की उन्नति मे अपनी उन्नति समझनी चाहिये)


प्र यदेते प्रतरं पूर्व्यं गु: सद:सद आतिष्ठन्तो अजुर्यम !
कवि: शुषस्य मातरा रिहाणे जाम्यै धुर्यं पतिमेरयेथाम् !! अथर्व 5/1/4
जो मनुष्य अपने स्वार्थ , अहंकार को त्याग कर तन, मन, बुद्धि से समाज की उन्नति के लिए समृद्धि का विस्तार करता है, द्यावा भूमि अपने ऐश्वर्य रूप अमृतों को प्रदान करते हैं . प्रजाजन उस के लिए भोजनच्छादनादि प्रदान करें

तदू षुते महत् पृथुज्मन् नम: कवि: काव्येना !
यत् सम्यञ्चावभियन्तावभि क्षामत्रा मही रोधचक्रे वावृधेते !! अथर्व 5/1/5
जो लोग धार्मिक सत्संगों में भाग ले कर ईश्वर प्राप्ति के लिए अपने में उत्सुकता जागृत करते हैं , द्यावाभूमि उन को जीवन में अग्रसर होने के लिए बल प्रदान्म करते हैं
सप्त मर्यादा: कवयस्ततक्षुस्तासामिदेकामभ्यं हुरो गात् !
आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य नीडे पथां पथां विसर्गे धरुणेषु तस्थौ !! अथर्व 5/1/6
चोरी,2.अगम्यागमन ,3. ब्रह्महत्या,4. भ्रूणहत्या,5. मद्यपान,6.पुन: पुन: पाप कर्म में प्रवृत्ति,7. पाप करके झूट बोलना बोलनाये निषिद्धाचरणा परित्याग रूप सात नियम बताए गए हैं. इन में से जो एक का भी उल्लंघन करता है वह पापी है. यही सात मर्यादाएं वैदिक दृष्ति से मानव धर्म हैं. यही समाज को धारण कर के प्रलय तक स्थिरता देती हैं.

उतामृतासुव्रत एमि कृण्वन्नसुसुरात्मा तन्व स्तत् सुमद्गु:!
उत वा शक्रो रत्नं दधात्यूर्जया वा यत् सचते हविर्दा: !! अथर्व 5/1/7
देश, समाज सेवा के व्रत ले कर, अपनी पूरी सामर्थ्य से अपने व्रतों के पालने करने से ही रमणीय सुख साधन प्राप्त होते हैं.


उत: पुत्र: पितरं क्षत्रमीडे ज्येष्ठं मर्यादमह्वयंत्स्वस्तये !
दर्शन् नु ता वरुण यास्ते विष्ठा आवर्व्रतत: कृणवो वपूंषि !! अथर्व 5/1/8
पूर्वजों, माता पिता की स्माज में प्रतिष्ठित व्यवस्था और मर्यादा के सम्मान से ही अत्मोन्नति होती है.

अधर्मेन पयसा पृणक्ष्यर्धेन शुष्म वर्धसे अमुर !
अविं वृधाम शग्मियं सखायं वरुणं पुत्रमदित्या इषिरम् !
कविशस्तान्यस्मै वपूंष्यवोछम रोदसी सत्यवाचा !!
अथर्व 5/1/9
प्रकृति के उपहार जल का मह्त्व और सदुपयोग स्वास्थ्य अन्नदि की व्यवस्था के लिए आवश्यक है.

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