Friday, July 29, 2011

Post Retirement duties

RV10.4
राजा का वानप्रस्थगुरुकुल प्रशिक्षण की आधारभूत वैदिक योजना Retirement of Politicians, expert sportsmen, Academicians etc.
ऋ10.4ऋषि:-त्रित आप्त्य:, देवता- अग्निRig Veda Book 10 Hymn 4
(वेदार्थ - दीपक निरुक्त भाष्याधरित- भाष्यकार श्री चंद्र्मणि विद्यालंकार पालीरत्न , के आधार पर)सूक्त का देवता 'अग्नि:' है.अग्नि से यहां अभिप्राय वनस्थ आश्रमी है, जिस को प्रत्न राजन्‌ कह कर सम्बोधित किया है . (प्रत्न राजन्‌) वृद्ध राजन्‌ वनस्थ; क्योंकि वह वनस्थ अग्नि-प्रधान होता है. वह गृहस्थ के अन्य सब सामान छोड कर यज्ञोपकरणो को ले कर ही वन में जाता है ,वहां पांचों, यज्ञ तथा अन्य पक्षेष्टि याग आदि करता है. अत: वनी को 'अग्नि' कहा गया.समाज के वरिष्ट विद्वान वानप्रस्थ आश्रम का निर्वाह वनों मे आवास स्थापित कर के अपने जीवन के बहुमूल्य अनुभव और ज्ञान को समाज, राष्ट्र, पर्यावरण, के लिए किस प्रकार समाज को उपलब्ध कराते थे यह इस ऋग्वेदीय उपदेश का विषय है वानप्रस्थी राजा. समाज के अनुभवी वरिष्ट-नेतागण, शिक्षाविद ,भिन्न भिन्न क्षेत्रों में निपुण- गृहस्थाश्रम निवृत्त जनों का वानप्रस्थ आश्रम धारण करके गुरुकुल जैसी शिक्षा प्रणाली में कैसे योगदान होता है यह इस वेद सूक्त का विषय है.
1.प्र ते यक्षि प्र त इयर्मि मन्म भुवो यथा वन्द्यो नोहवेषु |
धन्वन्निव प्रपा असि त्वमग्न इयक्षवे पूरवे प्रत्न राजन ||ऋ10.4.1
हे वनस्थ में तेरी संगति करता हूं, और तेरे मन को प्राप्त करता हूं.जिस से आप हे वंदनीय वृद्ध राजन स्वाध्याय शिक्षा यज्ञ. यागादि से इस ( आप का इस वनांचल में आवास समाज, पर्यावरण राष्ट्र के लिए) मरु भूमि मे एक जल के स्रोत जैसे हों.
Summer camps for specialized multidiscipline knowledge, sports academies, think tanks.

2.यं त्वा जनासो अभि संचरन्ति गाव उष्णमिव व्रजं यविष्ठ |
दूतो देवानामसि मर्त्यानामन्तर्महाँश्चरसि रोचनेन ||RV10.4.2
हे ज्ञान प्रापक तथा अज्ञान नाशक वनस्थ जैसे शीत-काल के समय गर्म गोशाला में गायें आ कर रहती हैं वैसे ही आप के पास अविद्या से बचने के लिए विद्यार्थी लोग आ कर रहते हैं , आप खिलाडी युवाजनों को दुष्कर्मों से निवारण करने वाले हो. आप के महान सानिद्यमें दीप्तिऔर प्रीति के साथ युवा विद्यार्थी रहते हैं. -
3.शिशुं न त्वा जेन्यं वर्धयन्ती माता बिभर्तिसचनस्यमाना |
धनोरधि प्रवता यासि हर्यञ जिगीषसे पशुरिवावसृष्ट: ||RV10.4.3
जैसे माता अपने बच्चे की वृद्धि करते हुए उसे पालती है, उसी प्रकार हे वनस्थ अपने चित्त वृत्तियों पर जितेंद्रिय हो कर वेद ज्ञान में संयुक्त हो कर समाज की उन्नति के लिए समाज के भविष्य का निर्माण करें.
4.मूरा अमूर न वयं चिकित्वो महित्वमग्ने त्वमङग वित्से |
शये वव्रिश्चरति जिह्वयादन रेरिह्यते युवतिंविश्पतिः सन्‌ ||RV10.4.4
हम साधरण लोग मूढ हैं, आप वनस्थ संसार का अनुभव प्राप्त करके अमूढ है, और अपने ज्ञान का महत्व समझते हैं, अपनी वाणी द्वारा शिक्षा देते हुए अपने वनस्थ आश्रममे विचरते हो. प्रजा पालक
होते हुए आप स्वयं ब्रह्मसे मिलाने वाली ब्रह्मविद्या का निरंतर आस्वादन करते हो.
5.कूचिज्जायते सनयासु नव्यो वने तस्थौ पलितो धूमकेतुः |
अस्नातापो वृषभो न प्र वेति सचेतसो यं प्रणयन्त मर्ताः || RV10.4.5
जब किसी के पुत्र के पुत्र का जन्म हो जाए, उस के बाल पक कर सफेद हो जाएं, तब उस का वनस्थ आश्रम में निवास उचित है. तब वांप्रस्थियों को समान चित्त वाले विद्यार्थी उपलब्ध कराये जाएं. जिस से वे उन विद्यार्थियों को अशुद्ध कर्मों के त्याग कर शुद्ध आचरण धारण करके वीर्यवान ब्रह्मचारी बनाए.

6.तनूत्यजेव तस्करा वनर्गु रशनाभिर्दशभिरभ्यधीताम्‌ |
इयं ते अग्ने नव्यसी मनीषा युक्ष्वा रथंन शुचयद्भिरङ्गै: ||RV10.4.6
हे वनस्थ ! अपने शारीरिक सुख की परवाह किये बिना आप के पवित्र हाथ यज्ञ कर्मों को भली भांति धारण करने की मानसिक इच्छा से आप के संकल्प की पूर्ति के लिए इस रथ रूपी शरीर को इस पुण्य कार्य में सन्युक्त करें.
7.ब्रह्म च ते जातवेदो नमश्चेयं च गीः सदमिद्वर्धनी भूत्‌ |
रक्षा णो अग्ने तनयानि तोका रक्षोत नस्तन्वो: अप्रयुच्छन ||RV10.4.7
हे विद्वान्‌ वनस्थ ! परमेश्वरार्चन, नम्रता और यह वेद वाणी आप को सदैव वृद्धि देनेवाले हों. आप प्रमाद रहित हो कर हमारे पुत्र तथा पौत्रों की के विद्या दान द्वारा समाज की रक्षा कीजिये.

Rig Veda Book 10 Hymn 146
ऋषिः ऐरम्भदो देवमुनि, देवता अरण्यानी (निरुक्त-पृ. 595)
वानप्रस्थ आश्रम-मुनि ऋषि- ऐरम्मद देवमुनि -स्वाभाविकतया इडाजन्य (भूमिजन्य) अन्न -कंद मूल फल फूल इत्यादि -पर संतुष्ट रहने वाला वनस्थ अरण्यानी से अभिप्राय- वनस्थ पुरुष( मुनि), सहचारिणी वनस्था और वन यह ग्राम या नगर से दूर होता है.
इस सूक्त में वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण करने के इच्छुक पति और उस की सहचारिणी पत्नी के सम्वाद द्वारा वानप्रस्थ आश्रम की समाज में स्थिति को दर्शाया गया है. पहले मंत्र में पति अपने साथ वन में जाने की अभिलाषा प्रकट करने वाली पत्नि को निर्जन वन तथा वहां भूमिजन्य अन्न- कंदमूल पर निर्वाह की कठिनाइयों को बता कर अपनी पत्नि को वन में जाने से असम्मति प्रकट करता है. अगले पांचमंत्रों में पत्नी वन जीवन की शोभा का वर्णन करती है. इस विषय पर मनुस्मृति के वचन " संत्यज्य ग्राम्यमाहारं सर्वं चैव परिच्छदम्‌ ! पुत्रेषु भार्यां निक्षिप्य वनं गच्छेत्सहैव वा !! मनु 6.3 –“ सब ग्राम के आहार और वस्त्र आदि सब उत्तमोत्तम पदाथों को छोड कर पुत्रों के पास स्त्री को रख अथवा अपने साथ लेके वन में निवास करे.
( सत्यार्थ प्रकाश से) एतद्‌ यह सिद्धांत स्थापित किया है कि वनस्थ की पत्नी यथारुचि अपने पुत्र के साथ नगर में, या पति के साथ वन में,कहीं भी रह सकती है.
1.अरण्यान्यरण्यान्यसौ या परेव नश्यसि |
कथाग्रामं न पर्छसि न तवा भीरिव विन्दती3 ||RV10.146.1
हे वनस्थ- पत्नी यह जो तू ग्राम से पराङ्मुख होती हुई वनों की ओर जाती है, सो ग्राम में रहने के लिए मेरी अनुमति क्यों नहीं लेती ? क्या तुझे वहां (वन में) जाने में कुछ भी भय नहीं लगता?
2.वृषारवाय वदते यदुपावति चिच्चिकः |
आघाटिभिरिवधावयन्नरण्यानिर्महीयते || RV10.146.2
(उत्तर में स्त्री कहती है ) अरण्य में वनस्पतियों के स्वर गान में सम्मिलित सूक्ष्म जन्तुओं (झींगुर इत्यादि के) स्वर ऐसे कण्ठप्रिय लगते हैं जैसे विविध गायक सस्वर गायन कर रहे हों.
3.उत गाव इवादन्त्युत वेश्मेव दर्श्यते |
उतो अरण्यानिःसायं शकटीरिव सर्जति || RV10.146.3
गौवों के समानअन्य वन पशु भी अरण्य में चरते दिखाए देते हैं, घनी लताओं की बनावट सुंदर घरों जैसी प्रतीत होती हैं, सायंकाल मे चारे ईंधनसे लदी गाड़ियां वन से निकलती ऐसे लगती हैं जैसे वन्य देवता उन्हें अपने घर को विदा कर रहे हैं.
4.गामङगैष आ ह्वयति दार्वङगैषो अपावधीत |
वसन्नरण्यान्यां सायमक्रुक्षदिति मन्यते || RV10.146.4
(वनस्थ पुरुष कहता है) अरण्य में स्थित (दिन में) एक पुरुष गाय को बुला रहा है, दूसरा लकड़ी काट रहा है, रात्रि में नानाविध के शब्द सुन कर भयभीत हो कर पुकारता है.
5.न वा अरण्यानिर्हन्त्यन्यश्चेन नाभिगछति |
स्वादोःफलस्य जग्ध्वाय यथाकामं नि पद्यते || RV10.146.5
(स्त्री कहती है) अरण्य कभी किसी की हिंसा नहीं करता . और अन्य भी यदि उस पर आक्रमण नहीं करता, तब अरण्य उसे मधुर कंद मूल फलों को प्रदान कर के उस के सुखानुसार व्यवस्था करता है.
6.आञ्जनगन्धिं सुरभिं बह्वन्नामक्र्षीवलाम |
पराहमृगाणां मातरमरण्यानिमशंसिषम || RV10.146.6
बिना कृषि के विपुल फलमूल भक्ष्य अन्नादि प्रदान करने और सुगंधि युक्त कस्तूरी मृग की माता रूपि अरन्य की हमें स्तुति करनी उचित है.

सुबोध कुमार

2 comments:

  1. Two points need more explanation from vedic verses:
    1.Can woman be a Vanpasthi? If not, then what about her way to 'Salvation'?
    2.If a man of another profession becomes vanparthi, then how he will teach?

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  2. Dear Shashi ji,
    Many thanks for your very probing comments.
    Frstly: The way to salvation has nothing to do with Vanprasth Ashram. It is all about a person doing his best in the service of humanity. If he has no expertise - knowledge- life time experience to share, the best he can perhaps do is get involved in Bhakti yog. Vedas always expected an individual to have the daivic दैविक qualities like that of an Indra, and thus have a life rich in knowledge and experience.
    Veds always said कर्मण्येवाधिकारस्ते. Sitting idle killing time was not expected from a Vedic person.
    In case of a lady, while there is no restriction on her entering the vanprasth. But she also has great responsibility of building the future generation. Thus it is for her to decide about sharing her time with her husband in Vanprasth Ashram or with her family. She has the freedom to decide the best way she thinks she can contribute to the society and pay her debts to humanity.
    Secondly: about a man of another profession becoming a Vanprasthi. The point is that one who has a life time experience and knowledge in any specific area, he must share and pass it on to the younger generation. This is the only way a society makes progress.
    With my best regards,
    Subodh Kumar

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